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________________ 28 2-1-1-1-9 (383) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थावर जीवों का आरंभ-समारंभ करके यह गृहस्थ देता है... यदि ऐसा हो तो तथा प्रकार के वे अशनादि स्वयंने बनाया हो, बाहर नहीं निकाला हो, अपने खुद का न हो, भोजन नही किया हो, आसेवित नही किया हो, ऐसे अप्रासुक एवं अनेषणीय आहारादि प्राप्त हो तो भी ग्रहण न करें... तथा वह साधु ऐसा जाने कि- यह आहारादि अन्य पुरुषों के लिये बनाया है। बाहर निकाला हो, स्वयं का किया हो, भोजन कर लिया हो, आसेवित किया हो तब उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण करें... यहां सारांश यह है किअविशोधिकोटि दोषवाले आहारादि जैसा-कैसा भी हो तो भी नही कल्पता किंतु विशोधिकोटि दोषवाले आहारादि अन्य पुरुष के लिये बनाया हो, अपने आपका किया हो इत्यादि प्रकार का कल्पता है... अब विशोधिकोटि विषयक सूत्र सत्रकार महर्षि कहेंगे..... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- किसी गृहस्थ ने शाक्यादि भिक्षुओं के लिए आहार बनाया है और वह आहार अन्यपुरुषकृत नहीं हुआ है, बाहर नहीं ले जाया गया है, किसी व्यक्ति ने उसे खाया नहीं है और वह अप्रासुक एवं अनेषणीय है, साधु के लिए अग्राह्य है। यदि वह आहार पुरुषान्तर हो गया है, लोग घर से बाहर ले जा चुके हैं दूसरे व्यक्तियों द्वारा खा लिया गया है और वह प्रासुक एवं एषणीय है, तो साधु उसे ग्रहण कर सकता है। I सूत्र // 9 // // 343 | से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावडकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जाई पुण कुलाई जाणिजा इमेसु खलु कुलेसु निइए पिंडे दिज्जड अग्गपिंडे दिजड़ नियए भाए दिज्जड़ नियए अवड्ढभाए दिज्जइ तहप्पगाराई कुलाई निइयाइं निउमाणाइं नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज वा। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा समग्गियं जं सव्वढेहिं समिए सया जए त्तिबेमि || 343 | II संस्कृत-छाया : ___ स: भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गृहपति कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेष्टुकामः सः यानि पुनः कुलानि जानीयात् इमेषु (एषु) खलु कुलेषु नित्यं पिण्ड: दीयते, अग्रपिण्डः दीयते नित्यं भागः दीयते, नित्यं अपार्धभागः दीयते, तथा प्रकाराणि कुलानि नित्यानि नित्यप्रवेशानि तत्र न भक्ताय वा न पानाय वा प्रविशेद् वा निष्क्रामेद् वा। एवं खलु तस्य भिक्षोः वा भिक्षुण्याः वा सामग्रयं यत् सवर्थिः समितः सदा यतेत // 343 //
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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