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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-9 (383) 29 III सूत्रार्थ : गृहस्थ के कुल में आहार प्राप्ति के निमित्त प्रवेश करने की इच्छा रखने वाले साधु या साध्वी इन क्ष्यमाण कुलों को जाने, जिन कुलों में नित्य आहार दिया जाता है, अग्रपिंड आहार में से निकाला हुआ पिंड दिया जाता है, नित्य अर्द्ध भाग आहार दिया जाता है, नित्य चतुर्थ भाग आहार दिया जाता है, इस प्रकार के कुलों में जो कि- नित्यदान देने वाले हैं तथा जिन कुलों में भिक्षुओं का भिक्षार्थ निरन्तर प्रवेश हो रहा है ऐसे कुलों में अन्न पानादि के निमित्त साधु और साध्वी की समयता अर्थात् निर्दोष वृत्ति है वह सर्व शब्दादि अर्थो में यत्नवाला, संयत अथवा ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त है। अतः वह इस वृत्ति का परिपालन करने में सदा यत्नशील हो। इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह भिक्षु याने साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गृहस्थों के घरों में प्रवेश करे तब यह देखे कि- इन कुलो में नित्य याने प्रतिदिन पिंड, अय याने शालिओदन आदि को पहले ही निकालकर भिक्षा में देने के लिये अलग रखें वह अयपिंड... तथा नित्य अर्ध पोष दे, तथा प्रतिदिन चतुर्थाश पोष दे, ऐसे प्रकार के कुल (घर) नित्य याने प्रतिदिन दानवाले होतें हैं... वे गृहस्थ लोग स्वपक्ष याने संयत-साधु और परपक्ष याने अन्य भिक्षाचर लोग भिक्षा के लिये जब घर आयें तब सभी को आहारादि देने के लिये बहुत सारी रसोई बनावे, ऐसा होने में छह जीवनिकाय की विराधना हो, तथा यदि रसोड अल्प (थोडी) हो तब अंतराय होता है, अतः उन घरों में साधु आहारादि के लिये प्रवेश न करे और न निकलें..... - अब इस उद्देशक का उपसंहार करतें हैं... इस उद्देशक में आरंभ से लेकर जो कहा वह उस भिक्षु-साधु की समयता है, जैसे कि- साधु उद्गम, उत्पादन, ग्रहणैषणा, संयोजन, * प्रमाण, इंगाल, धूम और कारणों से सुविशुद्ध पिंड का ग्रहण करें और वह ज्ञानाचार-समयता - है इसी प्रकार दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, और वीर्याचार की भी समयता है... अथवा यह सामग्री सूत्र से ही कहते हैं- सर्वार्थ याने सरस एवं विरस आहारादि से अथवा रूप, रस, गंध एवं स्पर्श से समित याने (संयत) साधु, अथवा पांच समितियां से समित अर्थात् संयत / अथवा शुभ एवं अशुभ पदार्थों में राग-द्वेष से रहित तथा हितवाला अथवा ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र से सहित ऐसा साधु सदा संयमवाला है... ऐसा हे जंबू ! मैं सुधर्मस्वामी श्री वर्धमान स्वामीजी के मुख से सुनकर तुम्हें कहता हूं...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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