________________ 30 2-1-1-1-9 (383) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में इस बात का आदेश दिया गया है कि- साधु को निम्न कुलों में भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। जिन कुलों में नित्य-प्रति दान दिया जाता है, जिन कुलों में अयपिंडजो आहार पक रहा हो उसमें से कुछ भाग पहले निकाल कर रखा हुआ आहार दिया जाता है, जिन कुलों में आहार का आधा या चतुर्थ हिस्सा दान में दिया जाता है और जिन कुलों में शाक्यादि भिक्षु निरन्तर आहार के लिए जाते हों, ऐसे कुलों में जैन साधु-साध्वी को प्रवेश नहीं करना चाहिए। क्योंकि- ऐसे घरों में भिक्षा को जाने से या तो उन भिक्षुओं की, जो वहां से सदा-सर्वदा भिक्षा पाते हैं, अंतराय लगेगी या उन भिक्षुओं के लिए फिर से आरम्भ करके आहार बनाना पड़ेगा। इसलिए साधु को ऐसे घरों से आहर नहीं लेना चाहिए। जैन साधु सर्वथा निर्दोष आहार ही ग्रहण करता है। इस बात को सूत्रकार ने 'सव्वठेहिं समिए.....' इत्यादि पदों से अभिव्यक्त किया है। इनका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि- मुनि को सरस एवं नीरस जैसा भी निर्दोष आहार उपलब्ध होता है, उसे समभाव से ग्रहण करता है। वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों में अनासक्त रहता है। वह पांच समिति से युक्त है, राग-द्वेष से दूर रहने का प्रयत्न करता है वह रत्नत्रयज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त होने से संयत है। और वह निर्दोष मुनिवृत्ति का परिपालन करता है, यही उसकी समग्रता है। _ 'त्तिबेमि' पद से सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि- ये विचार मेरी कल्पनामात्र नहीं है। आर्य सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू से कहते हैं कि हे जम्बू ! मैंने जैसा भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही तुम्हें कह रहा हूं। // प्रथम चूलिकायां प्रथमे पिण्डैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति :. मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शश्रृंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छा छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न-विद्वद्वरेण्य