________________ 374 2-1-6-1-1 (486) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन . अब कल्पनीय बात कहते हैं कि- वह गृहस्थ किस प्रकारसे पात्र दे तो साधु ग्रहण . करे... जैसे कि- उस गृहस्थके द्वारा दीये जा रहे पात्रको साधु अंदर और बाहिर चक्षुसे देखे... इत्यादि सभी बातें वस्त्रकी तरह जानीयेगा... क्योंकि- उस साधुका साधुपना इस प्रकारसे हि सिद्ध होता है... इति... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को तूम्बे, काष्ठ एवं मिट्टी का पात्र ही ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त साधु को लोह, ताम, स्वर्ण-चान्दी आदि धातु के तथा कांच के पात्र स्वीकार नहीं करने चाहिए। और साधु को अधिक मूल्यवान पात्र एवं काष्ठ आदि के पात्र भी जो कि धातु से संवेष्टित हों तो उन्हें भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि काष्ठ आदि के पात्र पर कोई गृहस्थ तैल, घृत आदि स्निग्ध पदार्थ लगाकर दे या साधु के लिए आहार आदि तैयार करके उस आहार से पात्र भर कर देवे तब भी साधु को उस सदोष आहार आदि से युक्त पात्र को ग्रहण नहीं करना चहिए। साधु को सब तरह से निर्दोष एवं एषणीय पात्र को चारों ओर से भली-भांति देख कर ही ग्रहण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में शेष वर्णन पिंडैषणा प्रकरण की तरह समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यदि साधु तरुण, नीरोग, दृढ़ संहनन वाला हो तो उसे एक ही पात्र रखना चाहिए। वृत्तिकारने प्रस्तुत पाठ को जिनकल्प से सम्बद्ध माना है। क्योंकि, स्थविरकल्प साधु के लिए तीन पात्र रखने का विधान है। हां, अभिग्रहनिष्ठ साधु अपनी शक्ति के अनुरूप अभिग्रह धारण कर सकता है। इसमें यह भी बताया गया है कि साधु पात्र ग्रहण करने के लिए आधे योजन से ऊपर न जाए। इसका तात्पर्य यह है कि साधु जिस स्थान में ठहरा हुआ हो उस समय वह पात्र लेने के लिए आधे योजन से ऊपर जाने का संकल्प न करे। __ आहार, वस्त्र आदि की तरह साधु-साध्वी को वह पात्र भी ग्रहण नहीं करना चाहिए जो उन साधु के लिए बनाया गया है। साधु को आधाकर्म आदि दोषों से रहित पात्र को स्वीकार करना चाहिए। 'तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझनी चाहिए। // प्रथमचूलिकायां षष्ठ-पात्रैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः //