________________ 512 2-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत सूत्र में पहले महाव्रत की पांच भावना का उल्लेख किया गया है। भावना साधक की साधना को शुद्ध रखने के लिए होती है। प्रथम महाव्रत की प्रथम भावना ईयर्यासमिति से संबद्ध है। इस में बताया गया है कि साधु को विवेक एवं यत्न पूर्वक चलना चाहिए। यदि यह विवेक पूर्वक ईर्या समिति का पालन करते हुए चलता है, तो पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है। और ईर्यासमिति के अभाव में यदि अविवेक से गति करता है तो पाप कर्म का बन्ध करता है। अतः साधक को ईर्या समिति के परिपालन में सदा सावधान रहना चाहिए। इससे वह प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया परिपालन कर सकता है। ईर्या समिति गति से संबद्ध है। अतः चलने-फिरने में विवेक एवं यत्ना रखना साधु के लिए आवश्यक है। अब सूत्रकार द्वितीय भावना के संबन्ध में कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में मन शुद्धि का वर्णन किया गया है। पहले महाव्रत को निर्दोष एवं शुद्ध . बनाए रखने के लिए मन को शुद्ध रखना आवश्यक है। मन के बुरे संकल्प विकल्पों से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है और उसके कारण साधक की प्रवृत्ति में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। क्योंकि कर्म बन्ध का मुख्य आधार मन (परिणाम) है क्रिया से कर्मण वर्गणा के पुद्गल आते हैं, परन्तु उनका बन्ध परिणामों की शुद्धता एवं अशुद्धता या तीव्रता एवं मन्दता पर आधारित है। अन्य दार्शनिकों एवं विचारकों ने भी मन को बन्धन एवं मुक्ति का कारण माना है। बुरे मन से आत्मा पाप कर्मो का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करता है और शभ संकल्प एवं मानसिक शुभ चिन्तन से अशुभ कर्म बन्धनों को तोड़ कर आत्मा मुक्ति की ओर बढ़ती है। अतः साधक को सदा मानसिक संकल्प एवं चिन्तन को शुद्ध बनाए रखना चाहिए। क्योंकि, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति को विशुद्ध बनाए रखने के लिए मन के चिन्तन को विशेष शुद्ध बनाए रखना आवश्यक है। मानसिक चिन्तन जितना अधिक शुद्ध होगा, प्रवृत्ति उतनी ही अधिक निर्दोष होगी। अतः मानसिक चिन्तन की शुद्धता के बाद वचन शुद्धि का उल्लेख सूत्रकार तीसरी भावना में करते है। प्रस्तुत सूत्र में वाणी की निर्दोषता का वर्णन किया गया है। इसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि सावध, सदोष एवं पापकारी भाषा का प्रयोग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता। क्योंकि सदोष एवं पापयुक्त भाषा से जीव हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। अतः साधु को अपने वचन का प्रयोग करते समय भाषा की निर्दोषता पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसे कर्कश, कठोर, व्यक्ति-व्यक्ति में छेद-भेद एवं फूट डालने वाले, हास्यकारी, निश्चयकारी, अन्य प्राणियों के मन में कष्ट, वेदना एवं पीड़ा देने वाली, सावद्य एवं पापमय भाषा का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। प्रथम महाव्रत की शुद्धि के लिए भाषा की शुद्धता एवं निर्दोषता