________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-28 (538) 511 दूसरी भावना इस प्रकार है कि- साधु मन से दुर्व्यानवाला न हो, क्योंकि- जो मन पापवाला हो, सावध क्रियावाला हो, कर्मो का आश्रव करनेवाला हो, या छेदन-भेदनादि अधिकरणवाला हो, या कलह करनेवाला हो, या बहुत सारे दोषों से दूषित होने से प्राणी भूत जीव और सत्त्वों को पीडा उत्पन्न करता है अतः साधु मन से समाधिवाला होना चाहिये... 3. अब तीसरी भावना इस प्रकार है कि- साधु दुष्ट-वाणीवाला न हो... क्योंकि- दुष्टवाणी जीवों को अपकार करनेवाली होती है... अतः साधु वाणी-वचन में भाषासमितिवाला होना चाहिये... अब चौथी भावना... साधु वस्त्र एवं पात्र आदि उपकरणों को लेने और रखने में आदाननिक्षेप समितिवाला होना चाहिये... अब पांचवी भावना... साधु आहारादि जो कुछ संयम यात्रा के लिये ग्रहण करे वह आहारादि चक्षु से दिखाई दे उसी प्रकार के होने चाहिये... यदि ऐसा उपयोग न रखा तो साधु को अनेक दोष लगने की संभावना है... इस प्रकार पांच भावनाओं के द्वारा पहले महाव्रत को साधु स्पर्श करे, पाले, आचरण करे एवं कीर्तन = प्रशंसा करे, और प्रभु की आज्ञा से प्रथम महाव्रत में स्थिर होकर आराधे... V सूत्रसार : [ में प्रथम महाव्रत का वर्णन किया गया है। इस महावत को स्वीकार करते समय साधक गुरु के सामने हिंसा से सर्वथा निवृत्त होने की प्रतिज्ञा करता है। वह जीवन पर्यन्त के लिए सूक्ष्म या बादर (स्थूल), अस या स्थावर किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से किसी भी तरह की हिंसा नहीं करता, न अन्य प्राणी से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वाले प्राणी का अनुमोदन-समर्थन भी न करे...... प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'प्राणातिपात' का अर्थ है, प्राणों का नाश करना। क्योंकि, प्रत्येक प्राणी में स्थित आत्मा का अस्तित्व सदा काल बना रहता है। अतः प्राणी की हिंसा का अर्थ है, उसके दश द्रव्य प्राणों का नाश करना। और इन दश द्रव्य प्राणों की अपेक्षा से ही संसारी जीव को प्राणी कहा जाता है। क्योंकि, वे संसारी जीव पांच इंद्रिय तीन बल एवं उच्छ्वास तथा आयुष्य आदि दश प्राणों को धारण किए हुए है। महाव्रतों का निर्दोष परिपालन करने के लिए उनकी भावनाओं की विभावना करना आवश्यक है। इसलिए प्रथम महाव्रतों की भावनाओं का उल्लेख सूत्रकार आगे कहते हैं।