________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-28 (536) 513 का परिपालन करना आवश्यक है। अब चौथी भावना का विश्लेषण सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में शारीरिक क्रिया की शुद्धि का उल्लेख किया गया है। साधु को मन, वचन की शुद्धि के साथ शारीरिक प्रवृत्ति को भी सदा शुद्ध रखना चाहिए। उसे अपनी साधना में आवश्यक भंडोपकरण आदि ग्रहण करना पड़े या कहीं रखने एवं उठाने की आवश्यकता पड़े तो उसे यह कार्य विवेक एवं यत्न पूर्वक करना चाहिए। अयतना से कार्य करने वाला साधु प्रथम महाव्रत को शुद्ध नहीं रख सकता और वह पाप कर्म बन्ध करता है। क्योंकि अविवक से जीवों की हिंसा का होना संभव है और जीव हिंसा पाप बन्धन का कारण है तथा इससे प्रथम महाव्रत का भी खण्डन होता है। अतः साधु को प्रत्येक उपकरण विवेक से उठाना एवं रखना चाहिए। अब पांचवीं भावना का उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि साधु को बिना देखे खाने-पीने के पदार्थों का उपयोग नहीं करना चाहिए। आहार को जाने के पूर्व मुनि को अपने पात्र भी भलीभांति देख लेने चाहिएं और उसके बाद प्रत्येक खाद्य एवं पेय पदार्थ सम्यक्तया देख कर ही ग्रहण करना चाहिए और उन्हें देख कर ही खाना पीना चाहिए। बिना देखे पदार्थ लेने एवं खाने से जीवों की हिंसा होने एवं रोग आदि उत्पन्न होने की संभावना होती है। अतः साधु को इस में पूरा विवेक रखना चाहिए। ये पांचों भावनाएं प्रथम महाव्रत को शुद्ध एवं निर्दोष रखने के लिये आवश्यक है। इनके सम्यक् आराधन से साधक अपनी साधना में तेजस्विता ला सकता है। अब प्रथम महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे के सूत्र से करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि प्रत्येक महाव्रत का महत्व उसके परिपालन करने में है। प्रथम महाव्रत का सम्यक्तया आचरण करने से ही आत्मा का विकास हो सकता है। जब तक महाव्रत जीवन में साकार रुप ग्रहण नहीं करता तब तक साधक की साधना में तेजस्विता नहीं आ सकती। इसलिए साधक को चाहिए कि वह आगम में दिए गये आदेश के अनुसार प्रथम महाव्रत को आचरण में उतारकर जीवन पर्यन्त उसका परिपालन करे, उसक सम्यक्तया आराधन करे। अब द्वितीय महाव्रत का उल्लेख सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सुत्र कहते है