________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका 2-1-5-1-8 (482) 355 इसमें दूसरी बात यह बताई गई है कि यदि कोई वस्त्र मैला हो गया हो या दुर्गन्धमय हो तो साधु को विभूषा के लिए उसे पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से रगड़ कर सुन्दर एवं सुवासित बनाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। वृत्तिकार ने इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से सम्बद्ध माना है। उनका कहना है कि यदि जिनकल्पी मुनि के वस्त्र मैले होने के कारण दुर्गन्धमय हो गए हों तब भी उन्हें उस वस्त्र को पानी एवं सुगन्धित द्रव्यों से धोकर साफ एवं सुवासित नहीं करना चाहिए। ___'अधारणिज्ज' पद की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार का कहना है कि लक्षणहीन उपधि को धारण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपघात होता है। और ‘अनलं अस्थिरं अधुवं और अधारणीयं' इन चार पदों के 16 भंग बनते हैं, उनमें 15 भंग अशुद्ध माने गए हैं और अन्तिम भंग शुद्ध माना गया है। कुछ प्रतियों में 'रोइज्जत' के स्थान पर 'देइज्जंत' और कुछ प्रतियों में 'वइज्जतं' पाठ भी उपलब्ध होता है। वस्त्र प्रक्षालन करने के बाद उसे धूप में रखने के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र : // 8 // // 482 // से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा० तहप्पगारं वत्थं नो अनंतरहियाए जाव पुढवीए संताणए आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा० / से भिक्खू वा० अभिकंखिज्ज वत्थं आया० पया० तहप्प० वत्थं थूणंसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अण्णयरे तहप्पगारे अंतलियखजाए दुब्बद्धे दुण्णिक्खित्ते अनिकंपे चलाचले नो आo नो प०। से भिक्खू वा० अभि० आयावित्तए वा तह० वत्थं कुकियंसि वा भित्तंसि वा सिलंसि वा लेखेंसि वा अण्णयरे वा तह० अंतलि0 जाव नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा०। से भिक्खू० वत्थं आया० पया० तह० वत्थं खंधंसि वा मंचंसि वा पासायंसि वा अण्णयरे वा तह० अंतलि० नो आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा०। से तमायाए एगंतमवक्कमिज्जा अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि वा थंडिल्लंसि पडिलेहिय, पमज्जिय, तओ संजयामेव वत्थं आयाविज्ज वा पयाविज्ज वा० एयं खलु० सया जइज्जासि तिबेमि // 482 //