________________ 356 2-1-5-1-8 (482) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाङ्क्षत वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा० तथाप्रकारं वस्त्रं न अनन्तरहितायां यावत् पृथिव्यां सन्तानके आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा० / सः भिक्षुः अभिकाक्षेत० वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं स्थूणे वा उम्बरे वा उदूखले वा कामजले (स्नानपीठे) वा अन्यतरे तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते दुर्बद्धे दुर्निक्षिप्ते अनिकम्पे चलाचले न आतापयेत् वा न प्रतापयेत् वा। सः भिक्षुः वा० अभिकाक्षेत० आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं भित्तौ वा शिलायां वा लेष्ठौ वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे० अंतरिक्षजाते. यावत् न आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा० / से भिक्षुः० वस्त्रं आतापयितुं वा प्रतापयितुं वा तथाप्रकारं वस्त्रं स्कन्धे वा मथे वा प्रासादे वा अन्यतरे वा तथाप्रकारे अन्तरिक्षजाते न आतापयेत् वा न . प्रतापयेत् वा। सः तं आदाय एकान्तं अपक्रामेत् अपक्रम्य अध: दग्धस्थण्डिले वा यावत् अन्यतरे वा तथाप्रकारे स्थण्डिले प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य तत: संयतः एव वस्त्रं आतापयेत् वा प्रतापयेत् वा एतत् खलु० सदा यतेथाः इति ब्रवीमि // 482 // : III सूत्रार्थ : संयमशील साधु या साध्वी यदि वस्त्र को धूप में सुखाना चाहे तो वह गीली जमीन पर यावत् अण्डों और जालों से युक्त जमीन पर न सुखावे तथा न वस्त्र को स्तंभ पर, घर के दरवाजे पर, ऊखल और स्नान पीठ (चौकी) पर सुखाए एवं इसी प्रकार के अन्य, भूमि से ऊंचे स्थान पर कि- जो दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त कंपनशील तथा चलाचल हों उन पर और घर की दीवार पर, नदी के तट पर, शिला और शिलाखण्ड पर, स्तम्भ पर, मंच पर, माल पर, तथा प्रासाद और हर्म्य-प्रासाद विशेष पर वस्त्र को न सुखावे। यदि सुखाना हो तो एकान्त स्थान में जाकर वहां अग्निदग्ध स्थंडिल यावत् इसी प्रकार के अन्य निर्दोष स्थान का प्रतिलेखन और प्रमार्जना करके यत्न पूर्वक सुखाए। यही साधु का समय-सम्पूर्ण आचार है; इस प्रकार मैं कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. अव्यवहित याने अंतर रहित भूमी पे वस्त्र न सुखावें... तथा यदि वह साधु वस्त्र को सुखाना चाहे तब चलित याने चलायमान हो ऐसे स्थूण आदि पे वस्त्र न सुखावें क्योंकि- वहां से वस्त्रों का गिरना संभवित है... तथा गिहेलुक याने उंबर, उसूयाल