________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-5-1-8 (482) 357 याने उद्खल, कामजल याने स्नानपीठ... इत्यादि... तथा दिवार आदि पर भी गिरने-पड़ने के * भय से साधु वस्त्र न सुखायें... इसी प्रकार थंभा, मंच, महल आदि अंतरिक्ष में भी वस्त्र न सुखावें... किंतु निर्जीव-स्थंडिल भूमी की प्रमार्जना पडिलेहणा करके वस्त्र सुखावें... यह हि साधु का समय साधुपना है... यह बात पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने अंतेवासी शिष्य जंबू को कहते हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जो स्थान गीला हो, बीज, हरियाली एवं अण्डों आदि से युक्त हो तो साधु ऐसे स्थान पर वस्त्र न सुखाए। तथा स्तम्भ पर घर के दरवाजे पर एवं एसे अन्य ऊंचे स्थानों पर भी वस्त्र न सुखाए। क्योंकि हवा के झोंकों से ऐसे स्थानों पर से वस्त्र के गिरने से या उसके हिलने से वायुकायिक एवं अन्य जीवों की विराधना होने की सम्भावना है। इसलिए साधु को ऐसे ऊंचे स्थानों पर वस्त्र नहीं सुखाना चाहिए कि- जो अच्छी तरह बन्धा हआ नहीं है. भली-भांति आरोपित नहीं है. निश्चल नहीं है. तथा चलायमान है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो अन्तरिक्ष का स्थान सम्यक्तया बन्धा हुआ, आरोपित, स्थिर द मार्ग में वहां पर साधु वस्त्र सुखा भी सकता है। प्रस्तुत सूत्र में मंच आदि स्थानों पर भी वस्त्र सुखाने का निषेध किया है। इसका उद्देश्य आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पहले अध्ययन के ७वें उद्देशक में आहार विधि के प्रकरण में दिया गया उद्देश्य ही है। यदि मञ्च एवं मकान आदि की छत पर जाने का मार्ग प्रशस्त है ओर वहां किसी भी जीव की विराधना होने की सम्भावना नहीं है तो साधु मञ्च एवं मकान आदि की छत पर भी वस्त्र सुखा सकता है। वस्तुतः सूत्रकार का उद्देश्य यह है कि साधु को प्रासुक एवं निर्दोष भूमि पर ही वस्त्र सुखाने चाहिए, जिससे किसी भी प्राणी की हिंसा न हो। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें। || प्रथम चूलिकायां पञ्चमववैषणाध्ययने प्रथमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शगुंजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छाया में शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर