________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-2 (338) 13 ऐसा जिसमें शुद्ध पदार्थ नहीं मिलते हों या सचित्त रज की बहुलता हो। इन कारणों के उपस्थित होने पर साधु आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार भी ले सकता है। यह वृत्तिकार का अभिमत है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र में भी कहा है कि- आधाकर्म आहार करनेवाला साधु एकान्त रूप से सात या आठ कर्म का बन्ध करता है। ऐसा नहीं कहना चाहिए कि वह सात-आठ कर्म का बन्ध नहीं करता है। भगवती सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए-तथारूप के श्रमणमाहण को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार देनेसे दाता को क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर फरमाते है कि- उसे अल्प पाप एवं बहुत निर्जरा होती है। प्रस्तुत आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वृत्तिकार ने स्वयं आधाकर्मी आहार ग्रहण करने का प्रबल शब्दों में निषेध किया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि- ध्रुव मार्ग निर्दोष आहार को स्वीकार करने को कहता है जब कि-अपवाद मार्ग साधक की स्थिति पर आधारित है। उसकी स्थापना नहीं की जा सकती। कौन साधक किस परिस्थिति में, किस भावना से, कौनसा कार्य कर रहा है ? यह छद्मस्थ व्यक्तियों के लिए जानना कठिन है। सर्वज्ञ पुरुष ही इसका निर्णय दे सकते हैं। इसलिए साधक को किसी विषय में पूरा निर्णय किए बिना एकान्त रूप से उसे पाप बन्ध का कारण नहीं कहना चाहिए और संभव है कि- यही कारण वृत्तिकार के सामने रहा हो जिससे उसने अपवाद स्थिति में सदोष आहार को स्वीकार करने योग्य बताया। वृत्तिकार का यह अभिमत विचारणीय है। आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि अब औषध ग्रहण करने के सम्बन्ध में कुछ बातें आगे के सूत्र में कहते हैं... 1 सूत्र // 2 // // 336 || से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावइ जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अवुच्छिन्नाओ तरूणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंतभजियं पेहाए अफासुयं अणेसणिजंति मण्णमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा। से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडिं अभिक्कंतं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिज्जंति मन्नमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा // 336 || II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा भिक्षुणी वा गाथापति (गृहपति) यावत् प्रविष्टः सन् सः याः पुनः - शालिबीजादिकाः औषधी: जानीयात् - कृत्स्नाः स्वाश्रयाः अद्विदलकृताः