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________________ 14 2-1-1-1-2 (338) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अतिरश्चीनच्छिन्ना: अव्यवच्छिन्नाः तरुणी वा मुद्गादेः फलिं अनभिकान्त-भग्नां प्रेक्ष्य अप्रासुकां अनेषणीयां इति मन्यमान: लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् / स: भिक्षुः वा यावत् प्रविष्टः सन् सः याः पुनः औषधी: जानीयात् - अकृत्स्ना: अस्वाश्रयाः द्विदलकृताः तिरश्चीनच्छिन्ना: व्यवच्छिंन्ना: तरूणीं वा मुद्गादे: फलिं अभिक्रान्तां भग्नां प्रेक्ष्य प्रासुकां एषणीयां इति मन्यमानः लाभे सति प्रतिगृह्णीयात् // 336 || III सूत्रार्थ : __ गृहस्थ के घर में गया हुआ साधु व साध्वी औषधि के विषय में यह जाने कि इन औषधियों में जो सचित्त है, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक भाग नहीं हुए हैं, जो जीव रहित नहीं हुआ हैं ऐसी अपक्व फली आदि देखकर उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय मानता हुआ साधु उसके मिलने पर भी उसे ग्रहण न करे। ___ परंतु औषधि निमित्त गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी औषधि के संबंध में यह जाने कि- यह सर्वथा.अचित्त है, विनष्ट योनि वाली है। द्विदल अर्थात् इसके दो भाग हो गये हैं, इसके सूक्ष्म खंड किये गए हैं, यह जीवजन्तु से रहित है, तथा मर्दित एवं अग्नि द्वारा परिपक्व की गई है, इस प्रकार की प्रासुक-अचित्त एवं एषणीय निर्दोष औषध गृहस्थ के घर से प्राप्त होने पर साधु उसे ग्रहण करले। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु गृहस्थों के घर में प्रवेश करके शालिबीज आदि औषधियां को जाने... जैसे कि- वह अखंड हैं... इत्यादि यहां द्रव्य-भाव से चतुर्भगी होती है... . 1. द्रव्य से कृत्स्ना अशस्रोपहत भाव से कृत्स्ना सचित्त.... यहां कृत्स्ना इस पद के चतुर्भगी में पहला तीन भंग ग्रहण करें क्योंकि- चौथे भंग में तो द्रव्य से शस्त्रोपहत है और भाव से अचित्त है... तथा स्वाश्रय याने अविनष्ट योनिवाले... आगम सूत्र में भी कितनेक औषधिओं का अविनष्ट योनिकाल दिखाया है... तथा दो भाग नही किये हुए, तथा तिरछा नहि छेदा हुआ... यहां भी द्रव्य एवं भाव से चतुर्भगी होती है... तथा अव्यवच्छिन्न याने सजीव... तथा मुग आदि की अपक्व फलि, कि- जो सचित्त है, अमर्दित है... ऐसे इन औषधिओं को देखकर के इस प्रकार के आहारादि को सचित्त एवं अनेषणीय माननेवाला साधु उन आहारादिकी प्राप्ति होने पर भी ग्रहण न करें...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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