________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-2 (336) 15 % 3A अब इस सूत्र को अन्य (विपरीत) प्रकार से कहते हैं- वह भाव-साधु या साध्वीजी म. जो यह औषधियां शालिबीज आदि द्रव्य एवं भाव से अकृत्स्न याने अचित्त हो तथा विनष्ट योनिवाले हो, तथा द्विदल किये हुए हो, तथा तिरछा छेदा हुआ हो, तथा अपक्व मूंग आदि की फलि अचित्त हो या मर्दित हो... इस प्रकार के आहारादि को प्रासुक एवं एषणीय मानता हुआ साधु ऐसे आहारादि की प्राप्ति होने पर तथा क्षुधा वेदनादि कारण होने पर उन्हे ग्रहण करें। अब आहार के विषय में ग्राह्य एवं अग्राह्य का अधिकार सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... . V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में औषध के सम्बन्ध में विधि-निषेध का वर्णन किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि- विधि एवं निषेध दोनों सापेक्ष हैं। विधि से निषेध एवं निषेध से विधि का परिचय मिलता है, जैसे साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ नहीं लेना, यह निषेध सूत्र है, परन्तु इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि- साधु अचित्त एवं निर्दोष आहार व्यहण कर सकता है। इस तरह विधि एवं निषेध एक दूसरे के परिचायक हैं। यह हम देख चुके हैं कि- साधु पूर्ण अहिंसक है। अतः वह ऐसा पदार्थ ग्रहण नहीं करता कि- जिससे किसी प्राणी की हिंसा होती हो। इसलिए यह बताया गया है कि- गृहस्थ के घर में औषधि आदि के लिए प्रविष्ट हुए साधु को यह जान लेना चाहिए कि- वह औषध सचित्त-सजीव तो नहीं है ? जैसे कोई फल या बहेड़ा आदि है, जब तक उस पर शस्त्र का प्रयोग न हुआ हो तब तक वह सचित्त रहता है। उसके दो टुकडे होने पर वह सचित्त नहीं रहता। परन्तु कुछ ऐसे पदार्थ भी हैं जो दो दल होने के बाद भी सचित्त रह सकते हैं। कुछ पदार्थ अग्नि पर पकने या उसमें दूसरे पदार्थ का स्पर्श होने पर अचित्त होते हैं। इस तरह साधु साध्वी को सब से पहले सचित्त एवं अचित्त पदार्थों का परिज्ञान होना चाहिए, और यदि उन्हें दी जाने वाली औषध सचित्त प्रतीत होती हो तो वे उसे ग्रहण न करे और वह सजीव .. न हो या पूर्णतया निर्दोष हो तो साधु साध्वी उसे ग्रहण कर सकते हैं। . प्रस्तुत सूत्र में ‘कृत्स्न' आदि जो पांच पद दिये गये हैं, उनसे वनस्पति की सजीवता सिद्ध की है। उन (योनियों) में भी जीव रहते हैं एवं उनके प्रदेशों में भी जीव रहते हैं, जैसे चना आदि जो अन्न है उनके जब तक बराबर दो विभाग न हों तब तक उसमें जीवोंके प्रदेश रहने की संभावना है। प्रश्न हो सकता है कि- जब प्रथम सूत्र में सचित्त पदार्थ ग्रहण करने का निषेध कर दिया तो फिर प्रस्तुत सूत्र में सचित्त औषध एवं फलों के निषेध का क्यों वर्णन किया ? इसका कारण यह कि- जैनेतर साधु वनस्पति में जीव नहीं मानते और वे सचित्त