________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 505 केवल ज्ञान के सामर्थ्य का वर्णन सूत्रकार आगे करते हैं। इसमें बताया गया है कि भगवान समस्त लोकालोक को तथा लोक में स्थित समस्त जीवों को, उनकी पर्यायों को, संसारी जीवों के प्रत्येक प्रकट एवं गुप्त कार्यो तथा विचारों को तथा अनन्त-अनन्त परमाणुओं एवं उनसे निर्मित पुद्गलों एवं उनकी पर्यायों को जानते-देखते है। लोक के साथ-साथ अलोक में स्थित अनन्त आकाश प्रदेशों को भी वे जानते देखते हैं। केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन संपन्न महावीर को अर्हन्त, जिन सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आदि कहते हैं। केवल ज्ञान का अर्थ है- वह ज्ञान जो पदार्थों की जानकारी के लिए पूर्ववर्ती मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्याय चारों ज्ञानो में से किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। वह केवल अर्थात् अकेला ही रहता है, और किसी अन्य ज्ञान की सहायता के बिना ही समस्त पदार्थों के समस्त भावों को जानता देखता है। प्रस्तुत सूत्र में सर्वज्ञ और सर्वदर्शी शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ को पहले समय में ज्ञान होता है और दूसरे समय दर्शन होता है। जब कि छास्थ को प्रथम समय में दर्शन और द्वितीय समय ज्ञान होता है। इस पर जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति में विस्तार से विचार किया गया है और वृत्तिकार ने उस पर विशेष रुप से प्रकाश डाला है। भगवान को केवल ज्ञान होने के बाद देवों ने उसका महोत्सव मनाया, उसका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जब भगवान को केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त हुआ तो उनके द्वारा होने वाले अनन्त उपकार का स्मरण करके तथा उस महावीर प्रभु के चरणों में अपनी श्रद्धा अर्पण करने के लिए भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव वहां आए और उन्होंने कैवल्य महोत्सव मनाया। अब भगवान द्वारा दी गई धर्मदेशना (उपदेश) का वर्णन सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि भगवान ने अपनी सेवा में उपस्थित चारों जाति के देवों को धर्मोपदेश दिया। उसके बाद उन्होंने जनता (मनुष्यों) को धर्मोपदेश दिया। इससे दो बातें स्पष्ट होती है, एक तो यह कि महापुरुष अपने पास आने वाले देव, मानव आदि प्रत्येक को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग बताते हैं, उन्हें समस्त बन्धनों से मुक्त होने की राह बताते हैं। दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही उपदेश देते हैं। वे जब संपूर्ण पदार्थो के यथार्थ स्वरुप को जानते-देखने लगते हैं, तभी वे प्रवचन करते हैं। जिससे उनके प्रवचन में विरोध एवं विपरीतता को अवकाश नहीं रहता और उसमें यथार्थता होने के कारण जनता के हृदय पर भी उसका असर होता है।