________________ 506 2-3-28 (536) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन स्थानांग सूत्र में बताया गया है कि भगवान के प्रथम प्रवचन में केवल देव ही उपस्थित थे, उस समय कोई मानव वहां उपस्थित नहीं था। और देव त्याग, व्रत, नियम आदि को स्वीकार नहीं कर सकते। इस कारण भगवान का प्रथम प्रवचन व्रत स्वीकार करने की (आचार की) अपेक्षा से असफल रहा था। इसलिए इस घटना को आगम में अन्य आश्चर्यकारी घटनाओं के साथ आश्चर्य जनक माना गया है। अब मानव को दिए गए धर्मोपदेश के संबन्ध में सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान द्वारा दिए गए उपदेश का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि देवों को उपदेश देने के बाद भगवान ने गौतम आदि गणधरों, साधु-साध्वियों एवं श्रावक श्राविकाओं के सामने 5 महाव्रत एवं उसकी 25 भावनाओं तथा षट्जीवनिकाय आदि का उपदेश दिया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान को सर्वज्ञता प्राप्त होने के बाद इन्द्रभूति गौतम आदि विद्वान उनके पास आए और विचार-चर्चा करने के बाद भगवान के शिष्य बन गए। अतः उन्हें एवं अन्य जिज्ञासु मनुष्यों को मोक्ष का यथार्थ मार्ग बताने के लिए संयम साधना के स्वरूप को बताना आवश्यक था। जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव कहते हैं कि जैसे यह संयम साधना या मोक्ष मार्ग मेरे लिए हितप्रद, सुखप्रद, एवं सर्व दुखों का नाशक है, उसी तरह जगत के समस्त प्राणियों के लिए भी अनन्त सुख-शान्ति का द्वार खोलने वाला है। अतः सभी तीर्थंकर जगत के सभी प्राणियों की रक्षा रुप दया के लिए उपदेश देते है। उनका यही उद्देश्य रहता है सभी प्राणी साधना के यथार्थ स्वरुप को समझकर उस पर चलने का प्रयत्न करे / इसी दृष्टि से भगवान महावीर गौतम आदि सभी साधु साध्वियों एवं अन्य मनुष्यों के सामने उपदेश देते हैं और साधना के प्रशस्त पथ का-जिस पर चलकर आत्मा अनन्त शान्ति को पा सके, प्रसार एवं प्रचार करने के लिए चतुर्विध संघ स्वरूप तीर्थ-साध, साध्वी, श्रावक और श्राविका की स्थापना करते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर सर्वज्ञ बनने के बाद तीर्थ की स्थापना करते हैं, इसे संघ भी कहते हैं। जिसके द्वारा विश्व में धर्म का, अहिंसा का शान्ति का प्रचार किया जा सके। ___ इस तरह साधना के मार्ग का यथार्थ रुप बताते हुए भगवान महावीर प्रथम महाव्रत के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 28 // // 536 // पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं पाणाइवायं, से सुहमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा