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________________ 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन __ प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की महान् एवं विशुद्ध साधना का उल्लेख किया गया है। वे सदा निर्दोष, प्रासुक एवं एषणीय स्थानों में ठहरते थे और वे ईर्या के सभी दोषों से निवृत्त होकर सदा अप्रमत्त भाव से विहार करते थे और उत्कृष्ट तप, संयम, समिति-गुप्ति, क्षमा, स्वाध्याय-कायोत्सर्ग आदि से आत्मा को शुद्ध बनाते हए विचर रहे थे। कहने का तात्पर्य यह कि भगवान महावीर का प्रत्येक क्षण आत्मा को राग-द्वेष एवं कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्तउन्मुक्त बनाने में लगता था। भगवान की सहिष्णुता का उल्लेख करते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान की सहिष्णुता, क्षमा एवं आध्यात्मिक साधना के विकास का वर्णन किया गया हैं। वे सदा समभाव पूर्वक विचरते थे। कभी भी कष्टों से विचलित नहीं हुए और न भयंकर वेदना देने वाले व्यक्ति के प्रति उन्होंने द्वेष भाव रखा वे क्षमा के अवतार प्रत्येक प्राणी को तन, मन और वचन से क्षमा ही करते रहे। वह अभय का देवता सब प्राणियों को अभय दान देता रहा। यही भगवान महावीर की साधना थी कि दुःख देने वाले के प्रति द्वेष मत रखो, सब के प्रति मैत्री भाव रखो, सब को क्षमा दो और आने वाले प्रत्येक दुःख सुख को समभाव पूर्वक सहन करो। इस महान् साधना एवं घोर तपश्चर्या के द्वारा राग-द्वेष एवं चार घातिक कर्मों का क्षय करके भगवान ने केवल ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। इसका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि साधना के बारह वर्ष कुछ महीने बीतने पर वैशाख शुक्ला 10 को जृम्भक ग्राम के बाहर, ऋजुवालिका नदी के तट पर, श्यामाक गृहपति के क्षेत्र (खेत) में, जहां जीर्ण व्यन्तरायतन था, दिन के चतुर्थ पहर में, सुव्रत नामक दिन, विंजय मुहूर्त एवं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर उक्कडु और गोदुह आसन से शुक्ल ध्यान में संलग्न भगवान ने राग-द्वेष एवं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इस चार घातिक कर्मों का सर्वथा क्षय करके केवल, ज्ञान, केवल दर्शन को प्राप्त किया। प्रस्तुत प्रसंग में मुहूर्त आदि के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि उस समय लौकिक पंचांग की ज्योतिष गणना को स्वीकार किया जाता था। ग्राम, नदी आदि के नाम के साथ * देश (प्रान्त) के नाम का उल्लेख कर दिया जाता तो वर्तमान में उस स्थान का पता लगाने में कठिनाई नहीं होती और इससे लोगों में स्थान सम्बन्धी भ्रान्तियां नही फैलतीं और ऐतिहासिकों में विभिन्न मतभेद पैदा नहीं होता। परन्तु इसमें देश का नामोल्लेख नहीं होने से यह पाठ विद्वानों के लिए चिन्तनीय एवं विचारणीय है।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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