________________ 280 2-1-3-2-5 (458) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अवलोकन भी नहीं हो सकेगा। आगम में यहां तक कहा गया है कि साधु को चलते समय पांचों तरह का स्वाध्याय- 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परावर्त 4. अनुप्रेक्षा और 5. धर्म कथा का स्वाध्याय भी नहीं करना चाहिए। इस तरह अपने योगों को सब ओर से हटाकर ईर्यासमिति का पालन करना चाहिए। कहते हैं जिस नदी में जंघा प्रमाण पानी हो उस नदी को साधु किस तरह पार करे, इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 458 // से भिक्खू वाo गामा० दू० अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुटवामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिज्जा, एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा, तओ संजयामेव० उदगंसि आहारियं रीइज्जा / से भिक्खू वा० आहारियं रीयमाणे नो हत्थेण हत्थं जाव अनासायमाणे, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा। से भिक्खू वा० जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे नो सायावडियाए नो परिदाहपडियाए महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा, काएण दगतीरए चिट्ठिज्जा। . से भिक्खू वा० उदउल्लं वा कार्य ससिणिद्धं वा कायं नो आमज्जिज्ज वा नो० अह पुण० विगओदए मे काए छिण्णसिणेहे, तहप्पगारं कायं आमज्जिज्ज वा० जाव पयाविज्ज वा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा // 458 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य जङ्घा-संताएं उदकं स्यात्, स: पूर्वमेव स्वशीर्षोपरिकां कायां पादौ च प्रमृज्यात्, प्रमृज्य च एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कुर्यात्, ततः संयतः एव उदके याथार्य गच्छेत् / सः भिक्षुः वा० याथार्यं गच्छन् न हस्तेन हस्तं यावत् अनासादन् ततः संयतः एव जङ्घासंतार्ये उदके यथार्यं गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० जङ्घासंतार्ये उदके यथार्यं गच्छन् न साता-पतितया न परिदाहपतितया महति महालये उदके कायं प्रविशयेत्, ततः संयतः एव जङ्घासंतार्ये