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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-4 (457) 279 है। दुर्भाव पूर्वक की गई द्रव्य हिंसा ही पापकर्म के बन्ध का कारण हो सकती है। आगम में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि विवेक एवं यत्ना पूर्वक चलते समय यदि साधु के पैर के नीचे क्षुद्र मंडुकी आदि कोई जीव मर जाए तब भी साधु को ईर्यापथिक क्रिया से संभवित कर्म का बन्ध होता है, सांपरायिकी क्रिया का बंध नहीं होता। वीतराग भगवान की आज्ञा के अनुसार विवेक पूर्वक नदी पार करने का कोई प्रायश्चित नहीं बताया गया है और न उसके लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण का ही उल्लेख किया गया है क्योंकि प्रायश्चित विवेक पूर्वक, सावधानी से कार्य करने का नहीं होता, वह प्रायश्चित तो असावधानी एवं आज्ञा के उल्लंघन करने का होता है। साधु-साध्वी को रास्ते में किस तरह चलना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी. आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 457 // से भिक्खू वा० गामाणुगामं दूइज्जमाणे नो परेहिं सद्धिं परिलविय गामा० दूइज्जिज्जा, तओं सं० गामा० दूइज्जिज्जा // 457 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् न परैः सार्धं भृशं उल्लापं कुवन् ग्रामानुग्राम गच्छेत्, ततः संयत: एव० ग्रामानुग्रामं गच्छेत् / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी यामानुग्राम विहार करते हुए गृहस्थों के साथ वार्तालाप करता हुआ गमन न करे। किन्तु ईर्यासमिति का यथाविधि पालन करता हुआ ग्रामानुग्राम विहार करे। . IV टीका-अनुवाद : सुगम हि है किंतु- साधु अन्य लोगों के साथ वार्तालाप करते हुए मार्ग में न चलें... अब जंघा-संतरण विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु या साध्वी को विहार करते समय या चलते समय अपने साथ के अन्य साधु से या गृहस्थ से बातें नहीं करनी चाहिए। क्योंकि, बातें करने से मार्ग में आने वाले जीव जन्तुओं को बचाया नहीं जा सकेगा तथा मार्ग का सम्यक्तया
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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