________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-5 (449) 259 विहारवृत्तितया प्रपद्येत गमनाय, केवली ब्रूयात्- आदानमेतत्, ते बाला:- अयं स्तेन:, अयं उपचरकः, अयं ततः आगतः इति कृत्वा तं भिलु आक्रोशयेयुः वा यावत् जीवितात् व्यपरोपयेयुः, वस्त्रादि वा आच्छिन्द्युः वा भिन्युः वा अपहरेयुः वा निर्धाटयेयुः वा, अथ भिक्षूणां पूर्वोप० यत् तथाप्रकाराणि विरूपरूपाणि प्रात्यान्तिक्रानि दस्युकायतनानि यावत् विहारवृत्तितया न प्रपद्येत वा गमनाय, ततः संयतः एव ग्रामानुग्राम गच्छेत् / / 449 // III सूत्रार्थ : ___ साधु या साध्वी व्यामानुयाम विचरता हुआ जिस मार्ग में नाना प्रकार के देशकी सीमा में रहने वाले चोरों के, म्लेच्छों के और अनार्यों के स्थान हों तथा जिनको कठिनता पूर्वक समझाया जा सकता है या जिन्हें आर्य धर्म बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सकता है ऐसे अकाल (कुसमय) में जागने वाले, अकाल (कुसमय) में खाने वाले मनुष्य रहते हों, तो अन्य आर्य क्षेत्र के होते हुए ऐसे क्षेत्रों में विहार करने का कभी मन में भी संकल्प न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि- वहां जाना कर्म बन्धन का कारण है। वे अनार्य लोग साधु को देखकर कहते हैं कि- यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गांव से आया है, इत्यादि बातें कहकर वे उस भिक्षु को कठोर वचन बोलेंगे उपद्रव करेंगे और उस साधु के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद प्रोंछन आदि का छेदन भेदन या अपहरण करेंगे या उन्हें तोड़ फोड़कर दूर फैंक देंगे क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब संभव हो सकता है। इसलिए भिक्षुओं को तीर्थंकरादि ने पहले ही यह उपदेश दिया है, कि साधु इस प्रकार के प्रदेशों में विहार करने का संकल्प भी न करे। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. व्यामांतर विहार करते हुए जाने कि- मार्ग में विभिन्न प्रकार के अतिशय क्रूर ऐसे चौरों का निवास है, या बर्बर, शबर, पुलिंद आदि म्लेच्छलोगों के (साढे पच्चीस आर्यदेश को छोड़कर शेष अनार्यदेश के लोगों के) निवास है, कि- जो लोग बडी कठीनाइ से आर्य-संज्ञा को समझते हैं, और बडे कष्ट से धर्मकथा के उपदेश से अनार्य संज्ञा से निवृत्त होते हैं तथा अकालप्रतिबोधी याने जिन्हों का भटकने का कोई निश्चित समय नहि है... अर्थात् रात-दिन कभी भी भटकते रहतें हैं... क्योंकि- वे आधी रात में भी शिकार के लिये निकल पडतें हैं... तथा अकालभोजी याने खाने-पीने का भी कोई निश्चित समय नहि है ऐसे उन लोगों के निवास क्षेत्र में विहार न करें, किंतु आर्यदेश में हि विहार करें... क्योंकियहां केवली प्रभु कहतें हैं कि- ऐसे अनार्यलोगों के क्षेत्र में विहार करने से कर्मबंध होता है... यहां संयमविराधना और आत्मविराधना संभवित है... तथा आत्मविराधना में संयम विराधना होती है... वह इस प्रकार- अनार्यक्षेत्र में विहार करने पर जब वे अनार्य लोग साधु को देखे