________________ 258 2-1-3-1-5 (449) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चले... यह विधि अन्य मार्ग न होने पर हि जानीयेगा... यदि अन्य मार्ग हो तो संयत साधु अन्य मार्ग से हि चलें... किंतु ऋजु याने सीधे मार्ग से न चलें इत्यादि... शेष सूत्र के पदार्थ सुगम हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को विहार करते समय अपनी दृष्टि गन्तव्य मार्ग पर रखनी चाहिए। अपने सामने की साढ़े तीन हाथ भूमि को देखकर चलना चाहिए। उस समय अपने मन, वचन एवं काय योग को भी इधर-उधर नहीं लगाना चाहिए। यहां तक कि साधु को चलते समय स्वाध्याय एवं आत्मचिन्तन भी नहीं करना चाहिए। उस समय उसका ध्यान विवेक पूर्वक चलने की ओर होना चाहिए और रास्ते में आने वाले क्षुद्र जन्तुओं एवं हरित काय की रक्षा करते हुए गति करनी चाहिए। यदि रास्ते में बीज, हरियाली एवं क्षुद्र जन्तु अधिक हों और उस गांव को दूसरा रास्ता जाता हो- चाहे वह कुछ लम्बा पड़ता हो, परन्तु जीवों से रहित हो, तो मुनि को वह जीवजन्तुओं से युक्त सीधा रास्ता छोड़कर उस निर्दोष मार्ग से जाना चाहिए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो यत्नापूर्वक पैरों को संकच कर या टेढ़े-मेढ़े पैर रखकर या अंगूठे आदि के बल पर उस रास्ते को तय करे अर्थात् उस मार्ग को विवेकपूर्वक पार करे जिससे जीवों को किसी तरह की पीड़ा एवं कष्ट न पहुंचे। __ इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 5 // // 449 // से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से विरुवरुवाणि पच्चंतिगाणि दस्सुगाययाणि मिलक्खूणि अणायरियाणि दुसण्णपाणि दुप्पण्णवणिज्जाणि अकालपडिबोहीणि अकालपरिभोईणि सइ लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारवडियाए पवज्जिज्जा गमणाए, केवली बूया- आयाणमेयं, ते णं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगएत्ति कट्ट तं भिक्खं अक्कोसिज्ज वा जाव उद्दविज्ज वा वत्थं प० कं० पाय० अच्छिंदिज्ज वा भिंदिज्ज वा अवहरिज्ज वा परिढविज्ज वा, अह भिक्खूणं पु० जं तहप्पगाराई विरु० पच्चंतियाणि दस्संगा० जाव विहारवत्तियाए नो पवज्जिज्ज वा गमणाए तओ संजया गा० दू० // 449 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामा० गच्छन् अन्तरा तस्य विरूपरूपाणि प्रात्यन्तिकानि दस्युकायतनानि म्लेच्छ प्रधानानि अनार्याणि दु:सज्ञाप्यानि दुष्प्रज्ञाप्यानि अकालप्रतिबोधीनि अकालपरिभोजीनि, सति लाढे विहारे विद्यमानेषु जनपदेषु, न