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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-2-2 (345) 35 III सूत्रार्थ : - साधु अथवा साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करते हुए इन कुलों को जाने, यथा उग्रकुल, भोगकुल, राजन्य कुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, वर्धकी (बढई) कुल, व्यामरक्षक कुल और तन्तुवाय कुल तथा इसी प्रकार के और भी अनिन्दित, अगर्हित कुलों में से प्रासुक अन्नादि चतुर्विध आहार यदि प्राप्त हो तो साधु उसे स्वीकार कर ले। ' IV टीका-अनुवाद : सः भिक्षु वा 2 भिक्षा याने आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने की इच्छा हो तब उच्च कुलों के घर को देखकर प्रवेश करे... वे इस प्रकार- उयकुल याने आरक्षकादि, भोगकुल याने राजा को आदरणीय, राजन्यकुल याने राजा के मित्र स्वरूप, क्षत्रियकुल राष्ट्रकूटादि, इक्ष्वाकुकुल ऋषभदेव के वंशवाले, हरिवंशकुल नेमिनाथ भगवान् के वंशवाले, गोष्ठ, वणिग्, गंडक याने गांव में उद्घोषणा करनेवाले नापित, कोट्टाग याने काष्ठतक्षक वार्द्धकी (सुथार) तथा बुक्कस याने तंतुवाय (वणकर) ऐसे अन्य भी कुल है जो कि- निंदनीय न हो और गर्हणीय न हो, विभिन्न देश के विनेय याने श्रमणों को सुगमता से समझ में आये अतः पर्याय शब्द से कहतें हैं कि- अंगहणीय कुलों में से आहारादि प्रासुक एवं एषणीय होने पर ग्रहण करें.. v सूत्रसार : / प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को भिक्षा के लिए कौनसे कुलों में जाना चाहिए। वर्तमान काल चक्र में भगवान ऋषभदेव के राज्यकाल पहले भरत क्षेत्र में भोगभूमि " (अकर्मभूमी) थीं। वर्तमान काल चक्र के तीसरे आरे के तृतीय भाग में भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था और उसके बाद भोग भूमिका स्थान कर्म भूमि ने ले लिया। भगवान ऋषभदेव ही प्रथम राजा, प्रथम मुनि एवं प्रथम तीर्थंकर थे, इनके युग से वर्ण व्यवस्था एवं कुल आदि परम्परा का प्रचलन हुआ। उसी के आधार पर बने हुए कुलों का सूत्रकार ने उल्लेख किया है। जैसे- १-उपकुल-रक्षककुल, जो जनता की रक्षा के लिए सदा सन्नद्व तैयार रहता है, २-भोगकुल-राजाओं के लिए सम्माननीय है। 3-राजन्यकुल-मित्र के समान व्यवहार करनेवाला कुल, ४-क्षत्रिय कुल-जो प्रजा की रक्षा के लिए शत्रों को धारण करता था। ५इक्ष्वाकु कुल-भगवान ऋषभदेव का कुल, ६-हरिवंश कुल-भगवान अरिष्ट नेमिनाथ का कुल, ७-एष्य कुल-गोपाल आदि का कुल, वैश्यकुल-वणिक्लोग... ८-यामरक्षक कुल-कोतवाल आदि का कुल, ९-गण्डक कुल-नाई आदि का कुल, १०-कुट्टाक, ११-वर्द्व की और १२बुक्कस-तन्तुवाय आदि के कुल एवं इसी तरह के अन्य कुलों से भी साधु आहार ग्रहण कर सकता है, जो निन्दित एवं घृणित कर्म करनेवाले न हो।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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