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________________ 36 2-1-1-2-3 (346) -3 (346) श्रीर श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत प्रकरण में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन तीनों कुलों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है, परन्तु ब्राह्मण कुल का कहीं नाम नहीं आया। इसके दो कारण हो सकते हैं- १-ब्राह्मण वर्ण की स्थापना भगवान ऋषभदेव ने नहीं की थी, बल्कि उनके दीक्षित होने के बाद भरत ने की थी। उनका वर्ण पीछे से आरम्भ हुआ इस कारण उसका उल्लेख नहीं किया है। २-प्रस्तुत सूत्र में भोग कुल का उल्लेख किया गया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ राजाओं का पूजनीय कुल कहा है। ब्राह्मण प्रायः पठन-पाठन के कार्य में ही संलग्न रहते थे एवं निस्पृह भी होते थे। इस कारण राजा लोग उनका सम्मान करते थे। अतः हो सकता है कि- भोग कुल से ब्राह्मण कुल का उल्लेख किया गया हो। ___एष्य कुल से गौरक्षा एवं पशु पालन करनेवाले कुलों तथा वैश्य कुल से कृषि कर्म एवं व्यापार के द्वारा अल्पारम्भी जीवन बितानेवाले कुलों का निर्देश किया गया है। 3-गण्डाकनाई आदि के कुल से केशालंकार एवं गांव में किसी तरह की उद्घोषणा आदि कराने की प्रवृत्ति का तथा कुट्टाक, वर्द्वकी आदि कुलों से भवन निर्माण एवं काष्ठ कला की और तन्तुवाय कुल से वस्त्र कला की परम्परा का संकेत मिलता है। इस तरह उक्त कुलों के निर्देश से उस युग की राष्ट्रीय एवं सामाजिक व्यवस्था का पूरा परिचय मिलता है। अन्य अनिन्दनीय कुलों से शिल्प एवं विज्ञान आदि के कुशल कलाकारों का निर्देश किया गया है। अतः प्रस्तुत सूत्र ऐतिहासिक विद्वानों, एवं रिसर्च (खोज) करनेवाले विद्यार्थियों के लिए बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र || 3 || || 346 / / से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा 4 समवाएसु वा पिंडनियरेसु वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुंदमहेसु वा भूयमहेसु वा जखमहेसु वा नागमहेसु वा थूभमहेसु वा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसु वा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा दइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु बहवे समणमाहण अतिहि किविण वप्पीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा 4 अपुरिसंतरकडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा। अह पुण एवं जाणिज्जा दिण्णं जं तेसिं दायट्वं, अह तत्थ भुंजमाणे पेहाए गाहावइभारियं वा गाहावइभगिणिं वा गाहावइपुत्तं वा धुयं वा सुण्हं वा धाई वा दासं वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्मकरिं वा से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसित्ति वा भगिणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो अण्णयरं भोयणजायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा आहट्ट
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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