________________ 34 2-1-1-2-2 (345) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन दूसरी ऋतु का आरम्भ होना) का महोत्सव हो और उसमें शाक्यादि भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, रंक, भिखारी आदि को भोजन कराया जा रहा हो। यद्यपि यह भोजन आधाकर्मदोष से युक्त नहीं है, फिर भी सूत्रकार ने इसके लिए जो ‘अफासुयं' शब्द का प्रयोग किया है, इसका तात्पर्य यह है कि- ऐसा आहार तब तक साधु के लिए अकल्पनीय है कि- जब तक वह आहारादि पुरुषान्तर कृत नहीं हो जाता है। यदि यह आहार एकान्त रूप से शाक्यादि भिक्षुओं को देने के लिए ही बनाया गया है और उसमें से परिवार के सदस्य एवं परिजन आदि अपने उपभोग में नहीं लेते हैं, तब तो साधु को वह आहार नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- इससे इन भिक्षुओं को अन्तराय लगती है। यदि परिवार के सदस्य एवं स्नेही-सम्बन्धी उसका उपभोग करते हैं, तो उनके उपभोग करने के बाद (पुरुषान्तर होने पर) साधु उसे ग्रहण कर सकते है। इसका तात्पर्य यह है कि- किसी भी उत्सव के प्रसंग पर अन्य मत के भिक्षु भोजन कर रहे हों तो उस समय वहां साधु का जाना उचित नहीं है। उस समय वहां नहीं जाने से मुनि संतोष एवं त्याग वृत्ति प्रकट होती है, उन भिक्षुओं के मन में किसी तरह की विपरीत भावना जागृत नहीं होती। अतः साधु को ऐसे समय विवेकपूर्वक कार्य करना चाहिए। साधु को किस कुल में आहार के लिए जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... सूत्र // 2 // // 345 / / से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से जाइं पुण कुलाइं जाणिज्जा तं जहाउग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइण्णकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंशकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकु लाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खगकुलाणि वा वुक्कासकुलाणि वा अण्णयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुंछिएसु अगरहिएसु असणं वा 4 फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा || 345 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा 2 यावत् प्रवेष्टुकाम: सन् यानि पुनः कुलानि जानीयात्, तं जहाउग्र-कुलानि वा भोगकुलानि वा राजन्यकुलानि वा क्षत्रियकुलानि वा इक्ष्वाकुकुलानि वा हरिवंशकु लानि वा गोष्ठ कु लानि वा वणिग्-कु लानि वा नापितकु लानि वा काष्ठतक्षककुलानि वा ग्रामरक्षककुलानि वा तन्तुवायकुलानि वा अन्यतरेषु वा तथा प्रकारेषु कुलेषु अजुगुप्सितेषु अगषेषु अशनं वा 4 प्रासुकं यावत् प्रतिगृहणीयात् / / 345 //