________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-4-2-4 (473) 333 निकालने या पानी रखने का पात्र, तख्त, नौका आदि बनाने योग्य है, इत्यादि सावध भाषा का कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। साधु को भाषा के प्रयोग में सदा विवेक रखना चाहिए और सत्यता के साथ जीवों की दया का भी ध्यान रखना चाहिए। उसे सदा निष्पापकारी सत्य भाषाका का प्रयोग करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'उदगदोण जोगाईया' एक पद है और इसका अर्थ है- कुंए आदि से पानी निकालने या पानी रखने का काष्ठ-पात्र / दशवैकालिक सूत्र में भी इस का एक पद में ही प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत सूत्र में 'रूढाइ वा, थिराइ वा गब्भियाइ वा' आदि पदों में जो बार-बार 'इ' का प्रयोग किया गया है, वह पाद पूर्ति के लिए ही किया गया है। ___ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 473 / / से भिक्खू वा तहप्पगाराई सद्दाइं सुणिज्जा, तहावि एयाइं नो एवं वइज्जा, तं जहा- सुसद्देत्ति वा दुसद्देत्ति वा, एयप्पणारं भासं सावज्जं वो भासिज्जा / से भिक्खू वा० तहावि ताई एवं वइज्जा, तं जहा- सुसहं सुसद्दित्ति वा दुसदं दुसद्दित्ति वा, एयप्पगारं असावज्जं जाव भासिज्जा, एवं स्वाइं किण्हेत्ति वा गंधाइं सुरभिगंधित्ति वा, रसाइं तित्ताणि वा फासाई कक्खडाणि वा. // 473 / / II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा० तथाप्रकारान् शब्दान् शृणुयात् तथापि तान् न एवं वदेत्, तद्यथासुशब्दः इति वा, दुःशब्दः इति वा, एतत्प्रकारां भाषां सावद्यां न भाषेत। सः भिक्षुः वा० तथापि तान् एवं वदेत्, तद्यथा-सुथब्दं सुथब्दः इति वा, दुःशब्दं दुःशब्दः इति वा, एतत्प्रकारां असावद्यां यावत् भाषेत, एवं रूपाणि कृष्णः इति वा गन्धं सुरभिगन्धः इति वा, रसान् तिक्तानि वा स्पर्शान् कर्कशानि वा // 473 // III सूत्रार्थ : संयमशील साधु साध्वी किसी भी शब्द को सुनकर वह किसी भी सुशब्द को दुःशब्द अर्थात् शोभनीय शब्द को अशोभनीय एवं मांगलिक को अमांगलिक न कहे। किन्तु सुशब्द अच्छे शब्द को सुन्दर और दुःशब्द को दुःशब्द और असुन्दर शब्द को असुन्दर ही कहे। इसी