________________ 552 2-4-12 (552) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सूत्र // 12 // // 552 / / इमंमि लोए परए य दोसु वि न विज्जड़ बंधन जस्स किंचिवि। . से ह निरालंबणमप्पइडिए कलंकलीभावपहं विमुच्चड़ // 552 // संस्कृत-छाया : अस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि न विद्यते बन्धनं यस्य किचिदपि / सः खलु निरालम्बनमप्रतिष्ठित: कलङ्कलीभावपथात् विमुच्यते // 552 // III सूत्रार्थ : जिस साधु को इस लोक में एवं परलोक के विषय में बंधन नहि है अर्थात् दोनों लोक .. के बंधनों से जो साधु मुक्त है वह हि मुनि-श्रमण विषय-कषाय स्वरूप संसार से मुक्त होकर मोक्षपद प्राप्त करता है. IV टीका-अनुवाद : जिस साधुको इस लोक में एवं परलोक में कोई भी बंधन-प्रतिबंध नही है, वह साधु इस जन्म एवं जन्मांतर की आशासे रहित होकर कही भी प्रतिबद्ध नही होता अर्थात् अशरीरी ऐसे वे साधु महात्मा कलंकलीभाव स्वरूप संसार की परिभ्रमणा से मुक्त होकर सिद्ध शिला के ऊपर सिद्ध स्वरूपी होकर विराजमान होता है... इति पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामीजी को कहतें हैं कि- चौवीसवे तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से जो मैनें सुना है वह मैं तुम्हे कहता हूं...