________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-6-6-2 (507) 455 इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि श्री सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं.... - I सूत्र // 2 // // 507 // से सिया परो सुद्धेणं वा असुद्धेणं वा वइबलेण वा तेइच्छं आउट्टे, से० असुद्धेणं वड़बलेणं तेइच्छं आउट्टे। से सिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु कड्ढित्तु वा कड्ढावित्तु वा तेइच्छं आउट्टाविज्ज नो तं सायए,, फडवेयणा पाणभूय जीव सत्ता वेयणं वेइंति, एयं खलु० समिए सया जए सेयमिणं मण्णिज्जासि तिबेमि || 507 // II संस्कृत-छाया : तस्य स्यात् परः शुद्धेन अशुद्धेन वा वाग्बलेन वा चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्, तस्य स्यात् परः अशुद्धेन वाग्बलेन चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्। तस्य स्यात् परः ग्लानस्य चिकित्सायै सचितानि वा कन्दानि वा मूलानि वा त्वच: वा हरितानि वा खनित्वा कृष्ट्वा कर्षयित्वा वा चिकित्सां कर्तुं अभिलषेत्, न तां स्वादयेत् न तां नियमयेत् / कटुवेदना: प्राणि-भूत-जीव-सत्त्वा: वेदनां वेदयन्ति, एतत् खलु० समितः सदा यतेत, श्रेयः इदं मन्येत इति ब्रवीमि // 507 // III सूत्रार्थ : यदि कोई सद्गृहस्थ शुद्ध अथवा अशुद्ध मंत्रबल से साधु की चिकित्सा करनी चाहे, इसी प्रकार किसी रोगी साधु को कन्द मूल आदि सचित्त वृक्ष, छाल और हरी वनस्पति का अवहनन करके चिकित्सा करनी चाहे तो साधु उसकी इस क्रिया को न तो मन से चाहे और न वाणी तथा शरीर से ऐसी सावध चिकित्सा कराए। किन्तु उस समय इस अनुप्रेक्षा से आत्मा को सान्त्वना देने का यत्न करे कि प्रत्येक प्राणी अपने पूर्व जन्म के लिए हुए अशुभ कर्मों के फलस्वरुप कटुकवेदना का उपभोग करते हैं। अतः मुझे भी स्वकृत अशुभकर्म के फलस्वरुप इस रोग जन्य वेदना को शान्ति पूर्वक सहन करना चाहिए। मेरे लिए यही कल्याणकारी है और इस प्रकार का चिन्तन करते हुए समभाव से वेदना को सहन करने में ही मुनिभाव का संरक्षण है। इस प्रकार मैं कहता हूं।