________________ 456 2-2-6-6-2 (507) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वह कोइ श्रद्धालु गृहस्थ उस साधु की शुद्ध या अशुद्ध मंत्र तंत्रादि बल से रोग के शमन के लिये चिकित्सा करना चाहे... तथा वह गृहस्थ ग्लान (बिमार) साधु की चिकित्सा के लिये सचित्त कंद-मूल आदि स्वयं ही खोदकर या अन्य के द्वारा खुदवा कर चिकित्सा करना चाहे तब वह साधु उस परक्रिया का आस्वाद याने आनंद मन से भी व्यक्त न करे या उस परक्रिया के लिये अन्य को न कहे... क्योंकि- इस विश्व में पूर्वकृत कर्मो के फलों को याने सुख-दुःख को सभी संसारी जीव भुगततें हैं... क्योंकि- अन्य जीवों को शारीरिक एवं मानसिक वेदना-पीडा उत्पन्न करके कर्मविपाक से होनेवाली कटु वेदनावाले सभी संसारी प्राणी भूत जीव एवं सत्त्व हैं... अर्थात् किये हुए पापकर्मो की पीड़ा को सभी जीव भुगततें हैं... अन्यत्र भी कहा है कि- हे जीव ! यह कर्म के फल स्वरुप वेदना-पीडा पुनः भी सहन करना ही पडेगा, क्योंकि- किये हुए कर्मो का फल भुगते बिना छुटकारा नही है, अतः ऐसा जानकर जो जो कर्मफल स्वरुप दुःख पीडा आवें उन्हें समभाव से भुगत लें... क्योंकि- ऐसी समझ तुझे अन्य-भवों में कहां प्राप्त होगी ? सत् एवं असत् का विवेक अभी तुझे प्राप्त हुआ है अतः यहां मुनि जीवन में पूर्वकृत कर्मों के कटुफलों को समभाव से सहन करें... शेष सभी सूत्रों का अर्थ सुगम है अतः स्वयं हि समझ लीजीयेगा... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि कोई गृहस्थ शुद्ध या अशुद्ध मंत्र से या सचित्त वस्तुओं से चिकित्सा करे तो साधु उसकी अभिलाषा न रखे और न उसके लिए वाणी एवं शरीर से आज्ञा भी न दे। जिस मंत्र आदि की साधना या प्रयोग के लिए पशु-पक्षी की हिंसा आदि सावध क्रिया करनी पड़े उसे अशुद्ध मंत्र कहते हैं। और जिसकी साधना एवं प्रयोग के लिए सावध अनुष्ठान न करना पड़े उसे शुद्ध मंत्र कहते हैं परन्तु साधु उभय प्रकार की मंत्र चिकित्सा न करे और न अपने स्वास्थ्यलाभ के लिए सचित्त औषधियों का ही उपयोग करे। वह साधु प्रत्येक स्थिति में अपनी आत्मशक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करे। वेदनीय कर्म के उदय से उदित हुए रोगों को समभाव पूर्वक सहन करे। वह यह सोचे कि पूर्व में बन्धे हुए अशुभ कर्म के उदय से रोग ने मुझे आकर घेर लिया है। इस वेदना का कर्ता मैं ही हूं। जैसे मैंने हंसते हुए इन कर्मो का बंध किया है उसी तरह हंसते हुए इनका वेदन करुंगा। परन्तु इनकी उपशान्ति के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं दूंगा और न तंत्र-मंत्र का सहार ही लूंगा। वृत्तिकार ने यही कहा है कि हे साधक, तुझे यह दुख समभाव पूर्वक सहन करना चाहिए। क्योंकि बन्धे हुए कर्म समय पर अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होते हैं। और इन