________________ 490 2-3-13/14 (521/522) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मूल रुप में मर्त्यलोक में नहीं आते। वे उत्तर वैक्रिय करके मनुष्यलोक में आते हैं और उत्तर वेक्रिय में वे 16 प्रकार के विशिष्ट रत्नों के सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में भगवान की दीक्षा के पूर्व शक्रेन्द्र द्वारा की गई प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। शक्रेन्द्र ने उत्तर वैक्रिय करके एक देवछन्दक बनाया और उस पर सिंहासन बनाकर भगवान को बैठाया और शतपाक एवं सहस्रपाक (सौ एवं हजार विशिष्ट औषधियों एवं जड़ी-बूटियों से बनाया गया) तैल से भगवान के शरीर की मालिश की, सुगन्धित द्रव्यों से उबटन किया और उसके बाद स्वच्छ, निर्मल एवं सुवासित जल से भगवान को स्नान कराया। उसके पश्चात् भगवान को बहुमूल्य एवं श्रेष्ठ श्वेत वस्त्र युगल पहनाया। और विविध आभूषणों से विभूषित करके हजार व्यक्तियों द्वारा उठाई जाने वाली शक्रेन्द्र द्वारा बनाई गई विशाल शिविका (पालकी) पर भगवान को बैठाया। उस तरह शक्रेन्द्र ने अपनी भक्ति एवं श्रद्धा को अभिव्यक्त किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि महान पुरुषों की सेवा के लिए मनुष्य तो क्या ? देव भी सदा उपस्थित रहते हैं। कुछ प्रतियों में 'मज्जावेइ' के पश्चात ‘गन्धकासाएहि गायाइं लूहेइ लूहित्ता' पाठ भी उपलब्ध होता है और यह शुद्ध एवं प्रामाणिक प्रतीत होता है। इसी तरह 'मुल्लं सयसहस्सेणं तिपडोल तित्तिएणं' के स्थान पर ‘पलययसहस्सेणं तिपलो लाभितएणं' पाठ भी उपलब्ध होता है। इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है I सूत्र // 13 // // 521 // सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स। ओसत्तमल्लदामा जलथलयदिव्वकुसुमेहिं // 521 // संस्कृत-छाया : शिबिका उपनीता जिनवरस्य जन्मजरा-विप्रमुक्तस्य। अवसक्तमाल्यदामा जलस्थलजदिव्यकुसेमैः // 521 // सूत्र // 14 // // 522 // सिबियाइ मज्झयारे दिव्वं वररयणसवचिंचड़यं। सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवरस्स // 522 //