________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-31 (539) 525 वर्णन अदत्तादान के समान जानना चाहिए। साधक गुरु के सामने यह प्रतिज्ञा करता हैं कि मै मैथुन से अपनी आत्मा को सर्वथा पृथक करता हूं, चतुर्थ महाव्रत की ये पांच भावनाएं हैं उन पांच भावनाओं में से प्रथम भावना इस प्रकार है-निर्यन्थ साधु बार-बार स्त्रियों को काम जनक कथा न कहे। केवली भगवान कहते हैं कि बार-बार स्त्रियों को कथा कहने वाला साधु शान्ति रुप चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शान्ति रुप केवली प्ररुपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः साधु को स्त्रियों के साथ बार 2 कथा नहीं करनी चाहिए यह प्रथम भावना है। अब चतुर्थ महाव्रत की दूसरी भावना कहते हैं-निर्ग्रन्थ साधु काम-राग से स्त्रियों की मनोहर-तथा मनोरम इन्द्रियों को सामान्य अथवा विशेष रुप से न देखे। केवली भगवान कहते हैं- जो निय॑न्थ—साधु स्त्रियों की मनोहर-मनको लुभाने वाली इन्द्रियों को आसक्ति पूर्वक देखता है वह चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करता हुआ सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ-साधु को स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को काम दृष्टि से कदापि नहीं देखना चाहिए। यह दूसरी भावना का स्वरुप है। - अब तीसरी भावना का स्वरुप कहते हैं-निर्ग्रन्थ-साधु स्त्रियों के साथ गृहस्थावस्था में पूर्वकाल में की गई पूर्व रति और क्रीडा-काम क्रीडा का स्मरण न करे। केवली भगवान कहते हैं कि- जो निम्रन्थ साध स्त्रियों के साथ की गई पूर्वकालीन रति और क्रीडा आदि का स्मरण करता है वह शान्तिरुप चारित्र का भेद करता हुआ यावत् सर्वज्ञ प्रणीत धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए संयमशील मुनि को पूर्वकाल में गृहस्थावस्था में की हुई रति और क्रीडा आदि का स्मरण नहीं करना चाहिए। यह तीसरी भावना का स्वरुप है। - अब चतुर्थ भावना का स्वरुप वर्णन करते हैं-वह निर्ग्रन्थ साधु प्रमाण से अधिक आहार-पानी तथा प्रणीत रस प्रकाम भोजन न करे। क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि इस प्रकार के आहार-पानी एवं प्रणीत-रस प्रकाम भोजन से निर्ग्रन्थ साधु चारित्र का विघातक होता है और धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्यन्थ को अति मात्रा में आहार पानी और सरस आहार नहीं करना चाहिए। पांचवीं भावना का स्वरुप इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ-साधु स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से युक्त शय्या-वसति और आसन आदि का सेवन न करे, केवली भगवान कहते हैं कि ऐसा करने से वह ब्रह्मचर्य का विघातक होता है और केवली भाषित धर्म से पतित हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ-साधु स्त्री, पशु पंडक आदि से संसक्त-शयनासनादि का सेवन न करे। यह