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________________ 24 2-1-1-1-6 (340) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का स्वरूप कहतें हैं... संरंभ याने मानसिक संकल्प समारंभ याने वाचिक परितापकर समारंभ (पूर्वतयारी) और आरंभ याने काया से पापाचरण प्रवृत्ति... तथा क्रीत याने मूल्य से खरीदना, पामिच्च याने बदले में लेना, आच्छेद्य याने दुसरों से बलपूर्वक से लेना, अनिसृष्ट याने उन आहारादि के स्वामीने अनुमति नही दीये हुए आहारादि... अभ्याहृत याने गृहस्थ ने सामने लाया हुआ, इस प्रकार क्रीत आदि से आहारादि लाकर गहस्थ देता है... इस क्रीत आदि से सभी विशुद्धि कोटि को जानीयेगा... अतः यह आधाकर्मादि दोषवाला आहारादि जो दाता (गृहस्थ) देता है वह उसने स्वयं ने ही कीया हो या अन्य पुरुषों से करवाया हो... तथा घर से निकला हो या नही निकला हो, उस दाता ने स्वीकृत किया हो या स्वीकृत न किया हो, तथा उस दाता ने भोजन किया हो या न किया हो, थोडा खाया हो या न खाया हो, इस प्रकार अप्रासुक एवं अनेषणीय आहारादि प्राप्त होने पर साधु ग्रहण न करें.. यह आहारादि प्रथम एवं अंतिम तीर्थकर के शासन में अकल्पनीय है... तथा मध्यम बाईस (22) तीर्थंकरों के शासन में अन्य साधु के लिये बनाया गया आहारादि अन्य साधु को कल्पता है... इस प्रकार अनेक साधर्मिकों के लिये बनाया हुआ आहारादि के बाबत में भी जानीगा... तथा साध्वीजीओं के लिये भी एक या अनेक बाबत भी इसी प्रकार जानीयेगा... अब फिर से अन्य प्रकार से अविशुद्ध कोटि के विषय में सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में सदोष आहार के भी दो विभाग किए गए हैं- विशुद्ध कोटि और अविशुद्ध कोटि / साधु के निमित्त जीवों की हिंसा करके बनाया गया आहार आदि अविशुद्ध कोटि कहलाता है और प्रत्यक्ष में किसी जीव की हिंसा न करके साधु के लिए खरीद कर लाया हुआ आहार आदि विशुद्ध कोटि कहलाता है। किसी व्यक्ति से उधार लेकर, छीनकर या जिस व्यक्ति की वस्तु है उनकी बिना आज्ञा से या किसी के घर से लाकर दिया गया हो वह भी विशुद्ध कोटि कहलाता है। इसे विशुद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि- इस आहार आदि को तैयार करने में साधुके निमित्त हिंसा नहीं करनी पड़ती। क्योंकि- यह बेचने एवं अपने खाने के लिए ही बनाया गया था। फिर भी दोनों तरह का आहार साधु के लिए अग्राह्य है। पहले प्रकार के आहार की अग्राह्यता स्पष्ट है कि- उसमें साधु को उद्देश्य करके हिंसा की जाती है। दूसरे प्रकार के आहार में प्रत्यक्ष हिंसा तो नहीं होती है, परन्तु साधु के लिए पैसे का खर्च होता है और पैसा आरम्भ से पैदा होता है, और जो पदार्थ उधार लिए जाते हैं उन्हें पुनः लौटाना होता है और पुनः लौटाने के लिये आरम्भ करके ही उन्हें बनाया जाता है। किसी कमजोर व्यक्ति से छीनकर देने से उस व्यक्ति पर साध के लिये बल प्रयोग किया
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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