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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-6 (340) 23 समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणियव्वा || 340 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा. यावत् प्रविष्टः सन् अशनं वा . अस्वप्रतिज्ञया एकं साधर्मिकं उद्दिश्य प्राणानि (प्राणिनः) भूतानि जीवानि सत्त्वानि समारभ्य समुद्दिश्य क्रीतं उच्छिन्नकं अच्छेद्यं अनिसृष्टं अभ्याहृतं आहृत्य ददाति, तं तथाप्रकारं अशनं वा . पुरुषान्तरकृतं वा अपुरुषान्तरकृतं वा बहिः निर्गतं वा अनिर्गतं वा आत्मस्थितं वा अनात्मस्थितं वा परिभुक्तं वा अपरिभुक्तं वा आसेवितं वा अनासेवितं वा अप्रासुकं यावत् न प्रतिगृह्णीयात्, एवं बहवः साधर्मिका: एकां साधर्मिकी, बहू: साधर्मिकी: उद्दिश्य चत्वारः आलापका: भणितव्याः || 340 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी इस बात की गवेषणां करे कि- किसी भद्र गृहस्थ ने एक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार बनाया हो, तथा साधुके निमित्त मोल लिया हो, उधार लिया हो, किसी निर्बल से छीनकर लिया हो, एवं साधारण वस्तु दूसरे की आज्ञा के बिना दे रहा हो, और साधु के स्थान पर घर से लाकर दे रहा हो, इस प्रकार का आहार लाकर देता है तो इस प्रकार का अन्न जल, खादिम और स्वादिम आदि पदार्थ, पुरुषान्तर-दाता से भिन्न पुरुषकृत, अथवा दाता कृत हो, घर से बाहर निकाला गया हो या न निकाला गया हो, दूसरे ने स्वीकार किया हो अथवा स्वीकार न किया हो, आत्मार्थ किया गया हो, या दूसरे के निमित्त किया गया हो, उसमें से खाया गया हो अथवा न खाया गया हो, थोड़ा सा आस्वादन किया हो या न किया हो, इस प्रकार का अप्रासुक अनेषणीय आहार मिलने पर भी साधु ग्रहण न करें। इसी प्रकार बहुत से साधुओं के लिए बनाया गया हो, या एक साध्वी के निमित्त बनाया गया हो अथवा बहुत सी साध्वियों के निमित्त बनाया गया हो वह भी ग्राह्य अर्थात् स्वीकार करने योग्य नहीं है। इसी भांति चारों आलापक जानने चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह भिक्षु-साधु यावत् आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करने पर देखे कियह आहरादि निर्गथ-साधु के लिये बनाया गया है... जैसे कि- कोई प्रकृति भद्रक गृहस्थ यह निर्मथ है ऐसा मानकर एक साधर्मिक-साधु के लिये प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का अर्थात् सभी एकेंद्रियादि जीवों का संरंभ, समारंभ एवं आरंभ करके आधाकर्म दोषवाला आहारादि बनावे... आधाकर्म कहने से सभी अविशोधि कोटि के दोष जानने चाहिए। यहां प्रारंगिक आरंभ
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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