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________________ 22 2-1-1-1-6 (340) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उपलक्षण से उपाश्रय में होने पर, उन अन्य तीर्थकादि को दोष लगने के कारण से आहारादि स्वयं न दें, और अन्य गृहस्थादि से न दिलवाये... क्योंकि- यदि साधु उन अन्य तीर्थकादि को आहारादि दे तब उनको देखकर लोग ऐसा जाने कि- ये भी दान-दक्षिणा के योग्य है, ऐसी स्थिति में असंयम के प्रवर्तनादि के दोष लगते हैं... अब पिंडाधिकार में ही अनेषणीणीय का विशेष प्रकार से प्रतिषेध की बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी एवं अन्य मत के साधुओं को आहार-पानी नहीं देना चाहिए। इससे संयम में अनेक दोष लगने की संभावना है। उनके घनिष्ठ सम्बन्ध रहने के कारण श्रद्धा में शिथिलता एवं विपरीतता आ सकती है। लोगों के मन में यह भी बात घर कर सकती है कि- ये अन्य मत के साधु अधिक प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठ हैं, तभी तो ये मुनि भी इनका आहार पानी से सम्मान करते हैं। इससे वे श्रावक (गृहस्थ) उनका सम्मान करने लगेंगे और फलस्वरूप मिथ्यात्व की अभिवृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त अन्य मत के साधुओं को आहार देने से सबसे बड़ा दोष गृहस्थ की चोरी का लगेगा। क्योंकि- गृहस्थ के घर से वह साधु अपने एवं अपने साथियों (सहधर्मी एवं संभोगी मुनियों) के लिए आहार लाया है। ऐसी स्थिति में वह अन्य मत के भिक्षुओं को आहार देता है, तो उसे गृहस्थ की चोरी लगती है। गृहस्थ को मालूम होने पर साधु पर अविश्वास भी हो सकता है कि- यह तो हमारे यहां से भिक्षा ले जाकर बांटता फिरता है। इस तरह के और भी अनेक दोष लगने की संभावना है। इस लिए मुनि को अपने संभोगी साधु के अतिरिक्त अन्यमत के साधुओं को आहार आदि नहीं देना चाहिए। यह प्रतिबन्ध संयम सुरक्षा की दृष्टि से है, न कि- दया एवं स्नेहभाव को रोकने के लिए। साधु को सदा एषणीय आहार ग्रहण करना चाहिए। अनेषणीय आहार की अग्राह्यता के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र ||6 | 340 // से भिक्खू वा जाव समाणे असणं वा . अस्संपडियाए एणं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिजं अणिसटुं अभिहडं आहट्ट चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा . पुरिसंतरकडं वा बहिया नीहडं वा अनीहडं वा अत्तट्टियं वा अणत्तट्टियं वा परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा, एवं बहवे साहम्मिया एणं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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