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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-1 (421) 215 में वे साधु या अन्य साधु आवे तब वे गृहस्थ इस प्रकार की छलना (माया) करे कि- प्राभृतिका देने के लिये यह वसति बनी हुइ है, अतः यहां ठहरीयेगा... अथवा, यह वसति पहले से हि हमारे लिये बनाइ हुइ है, अथवा हमारे भाइ-भतीजे के लिये यह घर बनाया हुआ है, अथवा इस घर में पहले अन्य लोग रहते थे, अथवा यह मकान अब हमारे काम का नहि है, हमने इसका त्याग कीया है, यदि श्रमण भगवंत ऐसे आपको इस मकान में ठहरना न कल्पे तो अब हम इस मकान को तोडकर गिरा देंमे... इत्यादि प्रकार से छलना (माया-कपट) करे तब गीतार्थ साधु उन गृहस्थों की छलना को सम्यग् प्रकार से जानकर उस वसति का त्याग करें। प्रश्न- क्या कभी ऐसी छलना होने पर भी कोइक गृहस्थ वसति के गुण-दोष आदि पुछे तब साधु जवाब दे कि नहि ? और ऐसा जवाब देनेवाला साधु सम्यक् जवाब देनेवाला कहलायेगा ? . उत्तर- आचार्यजी कहतें हैं कि- हे शिष्य ! वसतिके गुण-दोष कहनेवाला साधु सम्यग् (सच्चा) जवाब देनेवाला है ऐसा कहा गया है... अब तथाविध कार्य के कारण से चरक, कार्पटिक आदि के साथ संवास करना हो तो उसकी विधि कहतें हैं... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु किसी गांव या शहर में भिक्षा के लिए गया, उस समय कोई श्रद्धानिष्ठ गृहस्थ उक्त मुनि से प्रार्थना करे कि हमारे गांव या शहर में आहारपानी आदि की सुविधा है, अतः आप इसी गांव में ठहरें। गृहस्थ के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर मुनि सरल एवं निष्कपट भाव से कहे कि- आहार पानी की तो यहां सुलभता है, परन्तु ठहरने के लिए निर्दोष मकान का उपलब्ध होना कठिन है। मूल एवं उत्तर गुणों की दृष्टि से निर्दोष मकान सर्वत्र सुलभ नहीं होता। कहीं मकानों की कमी के कारण मूल से ही साधु के लिए मकान बनाया जाता है। कहीं साधु के उद्देश्य से नहीं बने हुए मकान पर साधु के लिए छत डाली जाती है, उसमें सफेदी करवाई जाती है, शय्या के लिए योग्य स्थान बनाया जाता है, दरवाजे तथा खिडकिएं लगाई जाती हैं। इस तरह मूल या उत्तर गुण में दोष लगने की संभावना रहती है। यदि कहीं सब तरह से निर्दोष मकान मिल जाए तो दूसरा प्रश्न यह सामने आएगा कि हम शय्यातर (मकान मालिक) के घर का आहार-पानी आदि ग्रहण नहि करते। कभी वह भक्तिवश आहार आदि के लिए आग्रह करे और हमारे द्वारा इनकार करने पर क्रोधित
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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