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________________ 214 2-1-2-3-1 (421) 'श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 1. गृहस्थों ने अपने आप के लिये बनाये हुए मकान-घर वह यथाकृत वसति मूलगुण से विशुद्ध है... गृहस्थों ने अपने आपके लिये बनाये हुए मकान में यदि आच्छादन, लेपन आदि परिकर्म की भी आवश्यकता न हो तब वह मकान (वसति) उत्तरगुण से विशुद्ध है... यदि उस मकान में धूप-वास-उद्योत-बलिवृत्त सिक्त और संमार्जनादि क्रिया करनी हो तब वह वसति विशोधिकोटि दोषवाली कही है... प्रायः वसति (मकान) में उत्तरगुण दोषों की संभावना होती है, अतः विस्तार से कहते हैं... जैसे कि- दर्भ आदि से ढांकना, गोमय आदि से लेपना, अपवर्तक के अनुसार संस्तारक (संथारो) तथा द्वार को बडा बनाना या छोटा बनाना इत्यादि... अथवा द्वार के कपाट (कमाडदरवाजे) बनाना... इत्यादि दोषों के कारण से वह वसति सदोष कही है.... तथा पिंड याने आहारादि की निर्दोष एषणा की दृष्टि से कहतें हैं कि- कीसी उपाश्रय में ठहरे हुए साधुओं को घर का मालिक गृहस्थ आहारादि के लिये निमंत्रण करे, तब उस घर के मालिक (शय्यातर) के यहां से आहारादि लेने में निषिद्ध आचरण नाम का दोष लगता है, क्योंकि- साधुओं को शय्यातर-पिंड अकल्पनीय कहा गया है, तथा यदि साधु उनके घर में से आहारादि न ग्रहण करे तो उन घर के मालिक (स्वामी) को द्वेष (गुस्सा) आदि होने की संभावना है, इस कारण से कहतें हैं कि- उत्तरगुण से विशुद्ध उपाश्रय प्राप्त होना दुर्लभ है... यदि निर्दोष उपाश्रय प्राप्त हो तब साधु वहां स्थान, शय्या, निषद्यादि करे... अन्यत्र भी कहा है कि मूल एवं उत्तर गुण से विशुद्ध तथा स्त्री, पशु एवं नपुंसकों के आवागमन से रहित वसति में साधु निवास (मासकल्पादि) करे, और सदा दोषों से बचतें रहें... अब कहतें हैं कि- मूल एवं उत्तर गुण से विशुद्ध वसति प्राप्त होने पर भी स्वाध्यायभूमीवाला विविक्त उपाश्रय प्राप्त होना दुर्लभ है... जैसे कि- मल-मूत्र के निरोध में असहिष्णु साधु बार बार चर्यारत याने आवागमन करते रहते हैं, स्थानरत याने एक जगह स्थिर रहकर काउस्सग करनेवाले, निषद्यारत याने स्वाध्याय ध्यान करनेवाले, शय्या याने शरीर प्रमाण और संस्तारक याने ढाइ हाथ प्रमाण सोने की जगह... अथवा ग्लान (रोग) आदि के कारण से कोइक साधु सोने के लिये संथारे में रहतें हो तथा निर्दोष आहारादि प्राप्त होने पर व्यासैषणा (भोजन) में रक्त होतें हैं इत्यादि विभिन्न चर्यावाले साधुजन होतें हैं... इत्यादि प्रकार से गृहस्थ को वसति के गुण-दोष कहनेवाले वे साधु मोक्षमार्ग में चलनेवाले होतें हैं एवं माया-कपट रहित होतें हैं... अब इस प्रकार वसति का स्वरुप कहकर वे साधु वहां से विहार करे तब वे श्रद्धालु श्रावकों ने देखा कि- साधओं को उपयोग में आवे ऐसी एषणीय वसति तो है नहि. अतः वे गृहस्थ साधुओं के लिये नये मकान को छादन, लेपन आदि से संस्कारित करें... अब कालांतर
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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