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________________ 186 2-1-2-1-8 (405) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : पूर्व के सूत्र में कहे गये घर में निवास करनेवाले साधु को इस प्रकार के दोष लगतें हैं... जैसे कि- गृहपति की भार्या, पुत्री, पुत्रवधू, धात्री, दासी, कर्मकरी इत्यादि ऐसा चिंतवे कि- यह साधुजन मैथुन से उपरत याने निवृत्त है... यदि इनके द्वारा पुत्र हो तब वह पुत्र ओजस्वी याने बलवान, तेजस्वी याने दीप्ति-कांतिमान्, वर्चस्वी याने रूपवान् तथा यशस्वी याने कीर्तिमान् हो... इस प्रकार का निर्धारण करके उनमें से कोइक श्रद्धालु स्त्री उस साधु को मैथुनकर्म की आसेवना के लिये अभिमुख करे... इत्यादि दोषों के भय से साधुओं को पूर्व के सूत्रो में कही गइ यह प्रतिज्ञा है कि- ऐसे प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, शय्या, निषद्यादि न करें... यह हि साधु एवं साध्वीजीओं का संपूर्ण साधुभाव है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु के ब्रह्मचर्य व्रत में दोष आ सकता है। क्योंकि साधु को अपने बीच में पाकर स्त्रिएं उसकी और आकर्षित हो सकती है और पारस्परिक वार्तालाप से यह जानकर कि ब्रह्मचारी के संपर्क से होने वाला पुत्र बलवान एवं तेजस्वी होता है, तो पुत्र की अभिलाषा रखने वाली कोई स्त्री मुनि से मैथुन क्रीड़ा करने की प्रार्थना भी कर सकती है और अपने हाव-भाव से वह मुनि को भी इस कार्य के लिए तैयार कर सकती है। इस तरह महाव्रतों से गिरने की संभावना देखकर भगवान ने साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ ठहरने का निषेध किया है। वस्तुतः देखा जाए तो वीर्य ही जीवन है। क्योंकि इस शरीर का निर्माण वीर्य से ही होता है। आगम में बताया गया है कि मनुष्य की अस्थि, मज्जा, केश एवं रोम का निर्माण पिता के वीर्य से होता है और मांस-मस्तक आदि का ढांचा माता के रुधिर (रज) से बनता है। माता और पिता का जीवन जितना संयमित, नियमित एवं मर्यादित होगा उतना ही सन्तान का शरीर शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी होगा। अतः जीवन को शक्तिसम्पन्न एवं तेजस्वी बनाए रखने के लिए वीर्य की सुरक्षा करना आवश्यक है। इसी कारण गृहस्थ के लिए भी स्वदारसन्तोष व्रत का उल्लेख किया गया हैं। स्वपत्नी के साथ भी मर्यादा से अधिक मैथुन का सेवन करना अपनी शक्ति का नाश करना एवं सन्तति को दुर्बल एवं रोगी बनाना है। असंयत एवं अमर्यादित जीवन चाहे गृहस्थ का हो या साधु का, किसी के लिए भी हितप्रद नहीं है। अतः साध को अपने संयम एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा में सदैव सावधान रहना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मचर्य साधना का महत्वपूर्ण स्तम्भ है, इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए, कि- जहां ब्रह्मचर्य के स्खलित होने की संभावना हो।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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