SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-1-8 (405) 185 वा, गाहावइधूयाओ वा, गाहा० सुण्हाओ वा, गाहा० धाईओ वा, गाहा० दासीओ वा, गाहा० कम्मकरीओ वा, तासिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवड़ - जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसिं कप्पड़ मेहणधम्म परियारणाए आउट्टित्तए, जा य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्म परियारणाए आउट्टाविज्जा पुत्तं खलु सा लभिज्जा, उयस्सिं तेयस्सिं वच्चस्सिं संपराइयं आलोयणदरसणिज्जं, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म तासिं च णं अण्णयरी सड्ढी तं तवस्सिं भिक्खं मेहणधम्मपडियारणाए आउट्टाविज्जा, अह भिक्खूणं पुव्यो० जं तहप्पगारे सागारिए उव० नो ठाणं वा चेइज्जा, एयं खलु तस्स सामग्गियं // 405 // II संस्कृत-छाया : . ___ आदानमेतत् भिक्षोः गृहपत्यादिभिः सार्धं संवसतः, इह खलु गृहपतिभार्या वा गृहपतिदुहितारः वा, गृहपतिस्नुषाः वा गृहपतिधात्र्यः वा, गृहपतिदास्यः वा, गृहपतिकर्मकर्यः वा, तासां च एवं उक्तपूर्वं भवति- ये इमे भवन्ति श्रमणाः भगवन्तः यावत् उपरता: मैथुन-धर्मात्, न खलु एतेषां कल्पते मैथुनधर्म परिचारणाय अभिमुखीभवनम् / या च.खंलु एतैः सार्द्ध मैथुनधर्म आसेवनार्थ अभिमुखं कुर्यात्, पुत्रं सा लभेत, स च ओजस्वी तेजस्वी वर्चस्वी यशस्वी भवेत्, तथा साम्परायिकः आलोकनदर्शनीयश्च / एतत्-प्रकारं निर्घोषं श्रुत्वा निशम्य तासां मध्ये अन्यतरी श्राद्धी तं तपस्विनं भिq मैथुनधर्म-आसेवनार्थ अभिमुखं कुर्यात् / अथ भिक्षूणां पूर्वोपo यत् तथाप्रकारे सागारिके उपा० नो स्थानं वा चेतयेत्, एतत् खलु तस्य (भिक्षोः) सामण्यम् // 405 // III सूत्रार्थ : भिक्षु को गृहस्थों के साथ बसने से निम्नलिखित दोषलग सकते हैं। जब वह गृहस्थों के साथ रहेगा तब उन गृहस्थों की गृहपत्निएं उनकी पुत्रिएं, पुत्रवधुएं, धावमाताएं, दासिएं और अनुचरिएं आपस में मिल कर यह वार्तालाप भी करने लगती है कि- ये साधु मैथुन धर्म से सदा उपरत रहते हैं अर्थात् ये मैथुन क्रीडा नहीं करते। अतः इन्हें मैथुन सेवन करना नहीं कल्पता। परन्तु, जो कोई स्त्री इनके साथ मैथुन क्रीड़ा करती है, उसको बलवान, तेजस्वी, रूपवाला और कीर्तिमान, संग्राम में शूरवीर एवं दर्शनीय पुत्र की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के शब्द को सुनकर उनमें से कोई एक पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री उस तपस्वी भिक्षु को मैथुन सेवन के लिए तैयार कर लेवे। इस तरह की संभावना हो सकती है, इसलिए तीर्थंकरों ने ऐसे स्थान में ठहरने का निषेध किया।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy