________________ 184 2-1-2-1-8 (405) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन चांदी, सोना या स्वर्ण के कड़े, बाजूबन्द-भुजाओं में धारण करने के आभूषण, तीन लड़ी का हार, फूल माला, अठारह लड़ी का हार, नौ लडी का हार, एकावली हार, सोने का हार, मोतियों और रत्नों के हार तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत और विभूषित युवती स्त्री और कुमारी कन्या को देखकर भिक्षु के मन में ये संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं, कि ये पूर्वोक्त आभूषणादि मेरे घर में भी थे अथवा मेरे घर में ये आभूषण नहीं थे। एवं मेरी स्त्री या कन्या भी इसी प्रकार की थी अथवा नहीं थी। इन्हें देखकर वह ऐसे वचन बोलेगा या मन मे उन का अनुमोदन करेगा। इसलिए तीर्थंकरों ने पहले ही भिक्षुओं को यह उपदेश दिया है कि वे इस प्रकार के उपाश्रय में न ठहरें। IV टीका-अनुवाद : गृहस्थों के साथ निवास करनेवाले साधु को यहां जो कहे जाएंगे वे दोष लगते हैं...... जैसे कि- किसी युवती या कन्या को अलंकारों से विभूषित देखकर साधु के मन में विभिन्न प्रकार के विचार आतें हैं, जैसे कि- यह ऐसी विभूषित यह युवती अच्छी लगती है या अच्छी नहि लगती... इत्यादि... अथवा यह युवती मेरी भार्या-पत्नी के समान दिखती है... तथा यह अलंकार अच्छा है या अच्छा नहि है इत्यादि बोले... इस प्रकार साधु के मन में अच्छे-बुरे अनेक विचार आते हैं इसलिये ऐसे उपाश्रय में साधु स्थान शय्या निषद्यादि न करें... यहां सूत्र में जो गुण शब्द है वह रसना याने कंदोरा... हिरण्य याने सोनामहोर... शुटित याने मृणालिका... तथा प्रालम्बक याने आप्रदीपन नाम का आभरण विशेष है... शेष पुरा सूत्र सुगम है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थ के साथ ठहरने का निषेध करते हुए बताया गया है कि गृहस्थ के यहां विभिन्न तरह के वस्त्राभूषण एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित नवयुवतियों एवं उसकी कुमारी कन्याओं को देखकर उसके मन में अपने पूर्व जीवन की स्मृति जाग सकती है। वह यह सोच सकता है कि मेरे घर में भी ऐसा ही या इससे भी अधिक वैभव था या मेरे घर में इतनी प्रचुर भोग सामयी नहीं थी, मैंने अपने जीवन में इतने भोग नहीं भोगे। इस तरह गृहस्थ के वैभव संपन्न जीवन को देखकर उसका मन भोगों के चिन्तन में लग सकता है। अतः इसे कर्म बन्ध का कारण जानकर साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। __ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... सूत्र // 8 // // 405 // आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावड़णीओ