________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-11-4 (397) 165 चाहिये कि- अन्य साधुओं को समदृष्टि से देखें... न कि- गच्छ में रहा हुआ उत्तरोत्तर आगे आगे की पिंडैषणा के अभिग्रहवाला साधु पूर्व पूर्वतर पिंडैषणा के अभिग्रह वालों को दूषित करें... अब जो करना चाहिये वह कहते हैं कि- वह साधु ऐसा कहे कि- देखीये / यह वे साधु भगवंत पिंडैषणादि अभिग्रहवाले इन प्रतिमाओं को स्वीकार के यामनुयाम विहार करतें हैं... और यथायोग विचरतें हैं... जिस प्रतिमा का स्वीकार करके में विचरता हुं... यह सभी साधु भगवंत जिनाज्ञा के अनुसार हि उद्यत विहारवाले होते हुए विचरतें हैं... और वे परस्पर समाधि से विचरतें हैं कि- जो समाधि गच्छ में रहे हुए साधुओं को कही गइ है... तथा सात पिंडैषणा गच्छवासीओं को कही है, और गच्छ से निकले हुए जिनकल्पिक आदि को पहली दो प्रतिमाओं को छोडकर शेष पांच पिंडैषणा का अभिग्रह कहा है... - इस प्रकार यथाविहारी वे सभी साधु भगवंत जिनाज्ञा का उल्लंघन नहिं करतें... कहा भी है कि- जो साधु दो वस्त्रवाले हैं, या तीन वस्त्रवाले हैं या बहु वस्त्रवाले हैं या वस्त्र रहित हि विचरते हैं उन सभी साधुओं की हीलना (निंदा) तिरस्कार नहि करना चाहिये, क्योंकिवे सभी जिनाज्ञा अनुसार हि हैं... और ऐसा भाव रखना यह हि तो साधु और साध्वीजी म. का संपूर्ण साधुपना है... कि- जहां आत्मोत्कर्ष याने अभिमान का त्याग है... v सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में साधना में अहंकार करने का निषेध किया गया है। साधना का उद्देश्य जीवन को ऊंचा उठाना है, अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना है। अतः साधक को चाहिए कि वह दूसरे की निन्दा एवं असूया से ऊपर उठकर क्रिया-अनुष्ठान करे। यदि कोई साधु उसके समान अभिग्रह या प्रतिमा स्वीकार नहीं करता है, तो उसे अपने से निम्न श्रेणी का मानना एवं उससे घृणा कस्ना साधुत्व से गिरना है। साधना की दृष्टि से की जाने वाली प्रत्येक क्रिया महत्वपूर्ण है और उसका मुल्य बाह्य त्याग के साथ आभ्यन्तर दोषों के त्याग में स्थित है। यदि बाह्य साधना की उत्कृष्टता के साथ-साथ उस त्याग का अहंकार है और दूसरे के प्रति ईर्ष्या एवं घृणा की भावना है तो वह बाह्य त्याग आत्मा को ऊपर उठाने में असमर्थ ही रहेगा। प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को अपने त्याग का, अपने अभिग्रह आदि का गर्व नहीं करना चाहिए और अन्य साधुओं को अपने से हीन नहीं समझना चाहिए। उसे तो साधना के पथ पर गतिशील सभी साधकों का समान भाव से आदर करना चाहिए। गुण सम्पन्न पुरुषों के गुणों को देखकर प्रसन्न होना चाहिए और उनके गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए। इसी से आत्मा का विकास होता है। . . आगम में यह स्पष्ट शब्दों में बताया गया है कि साधु को परस्पर एक-दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए। एक वस्त्र रखने वाले मुनि को दो वस्त्रधारी मुनि की और दो वस्त्र सम्पन्न मुनि को तीन या बहुत वस्त्र रखने वाले मुनि की निन्दा नहीं करनी चाहिए। इसी तरह अचेलक