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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-3 (358) 69 IV टीका-अनुवाद : भिक्षा के द्वारा देह का निर्वाह करनेवाले कितने साधु... जैसे कि- समाना याने जंघाबल की क्षीणता से एक क्षेत्र में रहने वाले तथा वसमाना याने मासकल्प विहारवाले साधुजन, यामानुयाम विहार के क्रम से वहां आये हुए प्राधूर्णक मान) साधओं को ऐसा कहे कि- यह गांव छोटा है अथवा अल्प घरवाला है. एवं अल्प आहारादि भिक्षा देनेवाला है... तथा सूतक आदि से संनिरुद्ध यह गांव बडा नही है... किंतु अतिशय छोटा गांव है... अतः आप पूज्य बाहर के गांवों में भिक्षाचर्या के लिये जाएं... इत्यादि अथवा वहां के निवासी कोई एक साधु के भाई भत्तीजे आदि या श्वसुरकुल के लोगों का नाम लेकर कहें... और इन घरों में भिक्षाकाल से पहले ही में प्रवेश करूं, और स्वजनों से इच्छित लाभ की प्राप्ति करूं... जैसे कि- पिंड याने शालि-ओदनादि तथा लोयं याने इंद्रियों को अनुकूल रसादि युक्त भोजन... तथा दूध, दहीं इत्यादि श्रीखंड पर्यंत के आहारादि... किंतु यहां मद्य की बात छेदसूत्र के अभिप्राय को समझें अथवा कोई साधु अतिशय प्रमाद के कारण अत्यंत रसासक्त होने से मधु-मद्य भी ग्रहण करे किंतु यह संयमाचरण के अनुकूल नही है... तथा फाणित याने जल से धोला हुआ गुड तथा शिखरिणी याने दही एवं शक्कर से बना श्रीखंड... इत्यादि भी आहारादि को प्राप्त करके एवं उनको वापर करके पात्र को साफ करके पुनः भिक्षाकाल में अविकृतमुखवाला वह साधु प्राघूर्णक याने आगंतुक (महेमान) साधुओं के साथ गृहस्थों के घर में आहारादि के लिये जाउंगा इत्यादि विचार से माया-जाल (कपट) करे... किंतु संयमी साधुको ऐसी माया नही करनी चाहिये.... - वह साधु वहां गांव में प्राघूर्णक साधुओं के साथ भिक्षा का समय होने पर गृहस्थों के घरों से आहारादि प्राप्त करें कि- जो उद्गमादि दोष रहित एवं एषणीय हो तथा धात्रीदोष आदि उत्पादनादि दोष रहित वैषिक हो... ऐसी भिक्षा को ग्रहण करके प्राघूर्णकादि साधुओं के साथ व्यासैषणादि दोष रहित आहारादि वापरे... यह ही साधु जीवन का संपूर्ण साधुभाव है... V. सूत्रसार : ... प्रस्तुत सूत्र में स्थिरवास रहने वाले मुनियों के पास आए अतिथि मुनियों के साथ उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका निर्देश किया गया है। कोई साधु हृदय की संकीर्णता के कारण आए हुए अतिथि मुनियों को देखकर सोचे कि- यदि ये भी इसी गांव से भिक्षा लाएंगे तो मेरे को प्राप्त होने वाले सरस आहार में कमी पड़ जाएगी। अतः इस भावना से वह आगन्तुक मुनियों से यह कहे कि- इस गांव में थोड़े घर हैं, उनमें भी कई घर बन्द पड़े हैं, इसलिए इतने साधुओं का आहार इस गांव में मिलना कठिन है। अतः आप दूसरे गांव से आहार ले आएं, या वह उन्हें दूसरे गांव जाने को तो नहीं कहे, परन्तु उनके गोचरी (आहार लाने)
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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