________________ 68 2-1-1-4-3 (358) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भिक्षाचर्यार्थं व्रजत, सन्ति तत्र एकस्य भिक्षोः पुरः संस्तुताः वा पश्चात्संस्तुताः वा परिवसन्ति / तद्-यथा-गृहपतयः वा गृहपतिभार्याः वा गृहपतिपुत्राः वा गृहपतिदुहितारः वा गृहपतिस्नुषाः वा धात्र्यः वा दासाः वा दास्यः वा कर्मकरा: वा कर्मकर्यः वा तथाप्रकाराणि कुलानि पुर:- संस्तुतानि वा पश्चात्संस्तुतानि वा पूर्वमेव भिक्षाचयार्थं अनुप्रवेक्ष्यामि। . अपि च अत्र लप्स्ये पिण्डं वा लोयं वा क्षीरं वा दधि वा नवनीतं वा घृतं वा गुडं वा तैलं वा मधु वा मद्यं वा शष्कुलिं वा फाणितं वा पूतं वा शिखरिणीं वा, तं पूर्वमेव भुक्त्वा पित्वा प्रतिग्रहं च संलिख्य संमृज्य ततः पश्चात् भिक्षुभिः सार्धं गृह. प्रवेक्ष्यामि वा निष्क्रमिष्यामि वा मातृस्थानं संस्पृशेत्, तत् न एवं कुर्यात् / सः तत्र भिक्षुभिः सार्द्ध कालेन अनुप्रविश्य तत्र इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः सामुदानिकं एषणीयं वैषिकं पिण्डपातं प्रतिगृह्य आहारं आहारयेत्, एतत् खलु तस्य भिक्षोः वा भिक्षुण्यः वा सामग्यम् / / 358 // III सूत्रार्थ : स्थिस्थरवास करनेवाले अथवा मासकल्पी कोई मुनि आगंतुक मुनिओं को ऐसा कहे कि- यह गांव बहुत ही छोटा है और उसमें भी कितने घर प्रसूति आदि कारणों से रुके हुए है। यह गांव बड़ा नहीं है इसलिए- 'हे पूज्य मुनिवरों ! आप गांव से बाहर किसी अन्य गांव में गोचरी के लिए पधारें !' यह सुनकर नवागंतुक मुनिओं को अन्य गांव में गोचरी के लिए जाना चाहिए। उस गांव में कोई साधु के माता-पिता आदि पूर्व सम्बन्धी अथवा श्वसुरादि पश्चात् संबंधी निवास करते हो जैसे कि- गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, पुत्र, पुत्री, गृहस्थ की पुत्रवधु, धायमाता, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी आदि, इसलिए कोई साधु ऐसा विचार करे किपहले मैं उनके घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करुंगा जिससे मुझे अन्न, रसमय पदार्थ दूध, दही, मक्खन, घी, गुड, तेल, मध (शहद) मद्य, पुरी, गुड़राब, पोएँ, श्रीखंड इत्यादि उत्तम भोजन मिलेगा। उस उत्तम भोजन को लाकर प्रथम में आहार-पानी करुंगा बादमें पात्रे साफ कर लूंगा। पश्चात् अन्य साधुओं के साथ गोचरी के लिए गृहस्थ के घरमें प्रवेश करूंगा। अथवा प्रवेश के लिए निकलूंगा। ऐसा विचार करनेवाला साधु मातृस्थान को स्पर्श करता है। संयम में दोष लगाता है। ऐसा केवली भगवंत फरमाते हैं कि- इसलिए ऐसा विचार भी नहीं करना चाहिए। किन्तु अन्य साधुओं के साथ भिक्षा के समय गृहस्थ के घर में प्रवेश कर अनेक घरों में से शुद्धिपर्वक निर्दोष भिक्षा ग्रहण कर आहार लाना चाहिए। साधु और साध्वी को ऐसा आहार ग्रहण करने का आचार हैं। // 358 //