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________________ 330 2-1-4-2-3 (472) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन योग्य है, यह वृषभ छोटा है, यह बैल वहन के योग्य है और यह बैल हल आदि चलाने के योग्य है, इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा का प्रयोग न करे। परन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके लिए इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे कि यह वृषभ जवान है, यह गाय प्रौढ़ है, दूध देने वाली है, यह बैल छोटा है, यह बड़ा है और यह शकट आदि को वहन कर शकता है इत्यादि. संयमशील साधु अथवा साध्वी किसी उद्यान (बगीचे) पर्वत या वन आदि में कुछ विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह वृक्ष मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण के योग्य है और यह गृह के योग्य है तथा इसका फलक बन सकता है, इसकी अर्गला बन सकती है और यह नौका के लिए भी अच्छा है। इसकी उदकद्रोणी (जल भरने की टोकणी) अच्छी बन सकती है और यह पिठ के योग्य है, इसकी चक्र नाभि अच्छी . बनेगी, यह गंडी के लिए अच्छा है, इसका आसन अच्छा बन सकता हैं और यह पर्यंक (पलंग) के योग्य है, इससे शकट आदि का निर्माण किया जा सकता है और यह वृक्ष उपाश्रय बनाने के लिए उपयुक्त है इत्यादि... साधु को इस प्रकार की सावध भाषा का व्यवहार नहीं करना चाहिए। किन्तु, उक्त स्थानों में अवस्थित विशाल वृक्षों को देख कर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे कि ये वृक्ष अच्छी जाति के हैं, दीर्घ और वृत्त तथा बड़े विस्तार वाले हैं। इनकी शाखाएं चारों ओर फैली हुई है, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले अभिरूप और नितान्त सुन्दर है। साधु इस प्रकार की असावद्य-निष्पाप भाषा का व्यवहार करे। संयमशील साधु अथवा साध्वी वन में बहुत परिमाण में उत्पन्न हुए फलों को देख कर उनके संबन्ध में भी इस पकार न कहे कि ये फल पक गए हैं, अतः खाने योग्य हैं या ये फल पलाल आदि में रख कर पकाने के पश्चात् खाने योग्य हो सकते हैं। इनके तोडने का समय हो गया है। ये फल अभी बहत कोमल हैं. क्योंकि इनमें अभी तक गठली नहीं पडी है और ये फल खण्ड-खण्ड करके खाने योग्य हैं इत्यादि... विवेकशील साधु इस प्रकार की साक्य भाषा न बोले। किन्तु, आवश्यकता पड़ने पर वह इस प्रकार कहे कि ये वृक्ष फलों के भार से नम हो रहे हैं। अर्थात् ये उनका भार सहन करने में असमर्थ प्रतीत हो रहे हैं। ये वृक्ष बहुत फल दे रहे हैं। ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि अभी तक इनमें गुठली नहीं पड़ी है, इत्यादि / साधु इस प्रकार की पाप रहित संयत भाषा का व्यवहार करे। संयमशील साधु अथवा साध्वी बहुत परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देख कर उनके सम्बन्ध में भी इस प्रकार न कहे कि यह औषधि (धान्य विशेष) पक गई है। यह अभी . नौली अर्थात कच्ची या हरी है। यह काटने योग्य या भंजने या खाने योग्य है इत्यादि... साधु इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा को न बोले। किन्तु, अधिक परिमाण में उत्पन्न हुई औषधियों को देख कर यदि उनके संबन्ध में बोलने की आवश्यकता हो तो साधु
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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