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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-4-1 (356) 63 घर में भोजन बनाया गया हो... तथा हिंगोल याने मृतकभोजन या यक्ष आदि की यात्रा का भोजन... संमेल याने परिजन (ज्ञाति) के सन्मान का भोजन समारोह... अथवा गोष्ठी भोजन समारोह... इस प्रकार की संखडि को देखकर वहां साध भिक्षा के लिये न जायें... क्योंकिवहां जाते हुए साधु को जो दोष लगतें हैं वह अब कहतें हैं... संखडि में जाते हुए उस साधु के मार्ग में बहुत स (कीडी-मकोडे-पतंगीया आदि) जीव, बहुत गेहूं आदि बीज, बहुत दुर्वा आदि वनस्पति, बहुत (अवश्याय) झांकल-हिम, बहुत जल, चीटियों के दर, पनक (निगोद) जल-मिट्टी-एवं करोडीये (मक्कडी) के जाले हो... तथा वहां संखडि में पहुंचने पर वहां बहुत सारे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, एवं वनीपक आये हुए हो या आतें हो या अनेवाले हो, वहां चरक आदि भिक्षुकों से व्याप्त उस संखडि में प्राज्ञ साधु को निकलना या प्रवेश करना उचित नही हैं... तथा नाज्ञ साधु को वहां वाचना-पृच्छना-परावर्तना अनुप्रेक्षा एवं धर्मअनुयोगचिंता भी नही हो सकती... क्योंकि- अनेक लोगों के आवागमन से व्याप्त उस संखडि में साधु को स्वाध्यायादि क्रिया नही हो सकती... इस प्रकार गच्छवाले संविज्ञ साधुओं को बहुत दोषवाली एवं मांसादि मुख्यतावाली संखडि में जाना नही चाहिये... अब यहां अपवाद कहतें हैं कि- मार्ग में विहार के श्रम से थका हुआ, या रोगावस्था से उठा हुआ या तपश्चर्या से दुर्बल या पर्याप्त आहारादि के अभाव में दुर्लभ आहारादि की इच्छावाला साधु यदि ऐसा देखे कि- यहां पूर्वोक्त स्वरूपवाली संखडि है और मार्ग में घुस जीव नही है, बीज, वनस्पति, आदि भी नही है या अल्प है तब ऐसी अल्प दोषवाली संखडि को जानकर मांसादि दोषों के त्याग में समर्थ होने के साथ-साथ कारण प्राप्त होने पर वहां संखडि में जाने का विचार करें... अब पिंडाधिकार में भिक्षा विषयक विशेष अधिकार सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V. सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में संखडियों के अन्य भेदों का उल्लेख करते हुए बताया गया है किसामिष एवं निरामिष दोनों तरह की संखडि होती थी, कोई व्यक्ति मांस प्रधान या मत्स्य प्रधान संखडि बनाता था, उसे मांस और मत्स्य संखडि कहते थे। कोई पुत्र वधु के घर आने पर संखडि बनाता था, कोई पुत्री के विवाह पर संखडि बनाता था और कोई किसी की मृत्यु के पश्चात् संखडि बनाता था। इस तरह उस युग में होने वाली विभिन्न संखडियों का प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया है और बताया गया है कि- उक्त संखडियों के विषय में ज्ञात होने पर मुनि को उसमें भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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