________________ 104 2-1-1-7-3 (393) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मिट्टी के लेप से बन्द किए गए खाद्य पदार्थ के बर्तन में से उक्त लेप को तोड़कर गृहस्थ कोई पदार्थ दे तो साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे पथ्वीकाय की एवं उसके साथ अन्य अप्कायिक आदि जीवों की हिंसा होगी और उस बर्तन में अवशिष्ट पदार्थ की सुरक्षा के लिए उस पर पुनः मिट्टी का लेप लगाने के लिए नया आरम्भ करना होगा। इस तरह पश्चात कर्म दोष भी लगेगा। इसी तरह सचित्त पृथ्वी, पानी एवं अग्नि पर रखा हुआ आहार भी साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई गृहस्थ अग्नि पर रखे हुए बर्तन को उतारते हुए या ऐसा ही कोई अन्य अग्नि सम्बन्धी आरम्भ करते हुए साधु को आहार दे तो उस आहार को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिससे छः काय एवं 6 में से किसी भी एक कायिक जीवों की हिंसा होती हो तो ऐसा आहार साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए। अब वायुकाय की यतना के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 393 // से भिक्खू वा से जं0 असणं वा, अच्चुसिणं अस्संजए भि० सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्थेण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज वा वीज वा, से पुत्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! मा एतं तुमं असणं वा अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि वा वीयाहि वा, अभिकंखसि मे दाउं, एमेव दंलयाहि, से सेवं वयंतस्स परो सुप्पेण वा जाव वीइत्ता आहट्ट दलइज्जा, तहप्पगारं असणं वा अफासुयं वा नो पडि० // 393 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत्० अशनं वा अत्युष्णं असंयत: भि0 सूर्पण वा वीजनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा बहेण वा बहकलापेन वा वस्त्रेण वा वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा शीतीकुर्यात् वा वीजयेत् वा, सः पूर्वमेव आलोकयेत् हे आयुष्मन् ! वा भगिनि ! वा, मा, एतत् त्वं अशनं वा, अत्युष्णं सूर्पण वा यावत् शीतीकृथाः वा वीजय वा, अभिकाङ्क्षसि मे (मह्यं) दातुं, एवमेव ददस्व, सः तस्य एवं वदतः परः सूर्पण वा यावत् वीजयित्वा आहृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं अशनं वा, अप्रासुकं वा न प्रति० // 373 //