________________ 544 2-4-6 (546) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे . के सूत्र से कहते है I सूत्र // 6 // . // 546 // दिसो दिसंऽनंतजिणेण ताइणा महव्वया खेमपया पवेड्या। महागुरू णिस्सयरा उईरिया तमेव तेउत्ति दिसं पगासगा // 546 // II संस्कृत-छाया : दिशोदिशं अनन्तजिनेन ताइना महाव्रतानि क्षेमपदानि प्रवेदितानि / महागुरूणि निस्वकराणि उदीरितानि तमः इव तेजः इतित्रिदिशं प्रकाशकानि // 546 // III सूत्रार्थ : षट्काय के रक्षक, अनन्त ज्ञान वाले जिनेन्द्र भगवान ने एकेन्द्रियादि भाव दिशाओं में रहने वाले जीवों के हित के लिए तथा उन्हें अनादि काल से आबद्ध कर्म बन्धन से छुडाने वाले महाव्रत प्रकट किए हैं। जिस प्रकार तेज तीनों दिशाओं के अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश करता है, उसी प्रकार महाव्रत रुप तेज से अन्धकार रुप कर्म समूह नष्ट हो जाता है और ज्ञानवान आत्मा तीनों लोक में प्रकाश करने वाला बन जाता है। IV टीका-अनुवाद : दिशा याने एकेन्द्रियादि अट्ठारह (18) भावदिशाओं में जीवों की सुरक्षा के लिये अनंत जिनेश्वर परमात्माओं ने कल्याणकर महाव्रतों का कथन किया है... यह महाव्रत आत्मा में अनादिकाल से संचित हुए कर्मो को दूर करने में समर्थ हैं... जिस प्रकार तेज याने प्रकाश अंधकार को दूर करके ऊपर नीचे एवं तिर्यक् ऐसी तीनों दिशाओं में प्रकाश करता है, ठीक वैसे ही यह महाव्रत कर्म-अंधकार को दूर करके तीनों दिशाओं को प्रकाशित करता है... अब मूल गुण के बाद उत्तरगुण कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में महाव्रतों के महत्व का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है