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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-5 (545) 543 सूत्र // 5 // // 545 // विऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स ज्ञायओ। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा तवो य पण्णा य जसो य वड्ढड़ // 545 // II संस्कृत-छाया : विद्वान् नतः धर्मपदं अनुत्तरं विनीततृष्णस्य मुनेः ध्यायतः। समाहितस्य अग्निशिखावत् तेजसा __ तपश्च प्रज्ञा च यशश्च वर्धते // 545 // III सूत्रार्थ : क्षमा मार्दवादि दश प्रकार के श्रेष्ठ यति-श्रमण धर्म में प्रवृत्ति करने वाला विनयवान एवं ज्ञान संपन्न मुनि-जो तृष्णा रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न है और चारित्र को परिपालन करने में सावधान है, उसके तप, प्रज्ञा और यश अग्नि शिखा के तेज की भांति वृद्धि को प्राप्त होते हैं। IV. टीका-अनुवाद : क्षेत्र-काल आदि को जाननेवाले विद्वान् एवं नम ऐसा वह मुनि अनुत्तर याने श्रेष्ठ ऐसे क्षमादि धर्मपदों की उपासना से तृष्णा से रहित होता हुआ समाधि के साथ धर्मध्यान लीन होता है, और जलते हुए अग्नि की शिखा = ज्वाला की तरह वह मुनि तपश्चर्या प्रज्ञा, यशः एवं देहकांति - तेज से वृद्धि पाता है... v सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में संयम से होने वाले लाभ का उल्लेख किया गया है। क्षमा, मार्दव आदि दश धर्मों से युक्त एवं तृष्णा से रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न विनय संपन्न मुनि की तपश्चर्या, प्रज्ञा एवं यश-प्रसिद्धि आदि में अभिवृद्धि होती है। वह निधूम अग्नि शिखा की तरह तेजस्वी एवं प्रकाश-युक्त बन जाता है। उसकी साधना में तेजस्विता आ जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि क्षमा, मार्दव आदि से आत्मा के ऊपर लगा हुआ कर्म मैल दूर होता है और परिणाम स्वरुप उसकी उज्जवलता, ज्योतिर्मयता और तेजस्विता प्रकट हो जाती है।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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