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________________ 542 2-4-4 (544) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - स्वरुप का ज्ञाता होता है। अतः उसे सुश्रमण-श्रेष्ठश्रमण कहा गया है। IV टीका-अनुवाद : परीषह एवं उपसर्गों को समभाव से सहन करनेवाले तथा इष्ट एवं अनिष्ट पदार्थों में उपेक्षाभाव रखनेवाले अर्थात् मध्यस्थ भाववाले श्रमण गीतार्थों के साथ रहें... क्योंकि- इस विश्व में अस एवं स्थावर सभी जीव दुःख याने असाता को नही चाहतें, अतः उन जीवों को दुःखकष्ट-परिताप नही देनेवाला श्रमण आश्रव द्वारों को स्थगित (बंध) करके पृथ्वी की तरह जो परीषह एवं उपसर्गों का कष्ट आवे उन्हें सहन करते हैं... यह महामुनि तीनों जगत के स्वभाव को यथार्थ प्रकार से जानता है अतः वह महामुनि सुश्रमण स्वरूप से प्रसिद्धि पातें ही है... V सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि मुनि संसार के यथार्थ स्वरुप का ज्ञाता एवं दृष्टा है। अतः वह कष्टों एवं परीषहों से विचलित नहीं होता है। क्योंकि- वह यह भी जानता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय लगता है, दुःख अप्रिय लगता है और संसार में स्थित एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि प्राणी दुखों से संत्रस्त हैं, इसलिए वह किसी भी प्राणी को संक्लेश एवं परिताप नहीं देता। वह अन्य प्राणियों से मिलने वाले दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है, परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। वह अन्य प्राणियों से मिलने वाले दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है, परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। यह उसको साधुता का उज्जवल आदर्श है। और इस विशिष्ट साधना के द्वारा वह अपनी आत्मा का विकास करता हुआ अन्य प्राणियों को कर्म बन्धन से मुक्त करने में सहायक बनता है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि साधु को सदा मध्यस्थभाव रखना चाहिए। दुष्ट एवं असभ्य व्यक्तियों पर भी क्रोध नहीं करना चाहिए और उसे सदा गीतार्थ एवं विशिष्ट ज्ञानियों के साथ रहना चाहिए। क्योंकि, अज्ञ के संसर्ग से समय एवं शक्ति का दुरुपयोग होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः साधक को ज्ञानी पुरुषों के सहवास में रहना चाहिए, उनके साथ रहकर वह अपनी साधना को आगे बढ़ा सकता है। इससे उसके ज्ञान में भी विकास होगा और ज्ञानवान एवं चिन्तनशील साधक लोक के यथार्थ स्वरुप को जानकर कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता है। अतः साधक को गीतार्थ मुनियों के साथ में रहकर अपनी साधना को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। __ इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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