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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-4-4 (544) 541 सूत्रसार : प्रस्तुत गाथा में पूर्व गाथा की बात दोहराई गई है। इसमें यह बताया गया है कि जैसे प्रचण्ड वायु के वेग से भी पर्वत कंपायमान नहीं होता, उसी तरह ज्ञान संपन्न मुनि असभ्य एवं असंस्कृत व्यक्तियों द्वारा दिए गए परीषहों-कष्टों से कम्पित नहीं होता, अपनी समभाव की साधना से विचलित नहीं होता। वह कष्टों के भयंकर तफानों में भी अचल. अटल एवं स्थिर भाव से अपनी आत्म साधना में संलग्न रहता है। वह उन परीषहों को अपने पूर्व कृत कर्म का फल जानकर समभाव पूर्वक उन्हें सहन करता है और उन कर्मो को या कर्म बन्ध के कारण राग-द्वेष और कषायों को क्षय करने का प्रयत्न करता है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त ‘नाणी अदुट्ठचेयसा' पद का अर्थ यह है कि ज्ञानी उन कष्टों को पूर्व कृत कर्म का फल समझकर उसे समभाव पूर्वक सहन करता है। वृत्तिकार ने भी इसी बात को स्वीकार किया है। साधु की सब प्राणियों के प्रति रही हुई समभाव की भावना का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहते है सूत्र // 4 // // 544 // उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, * अकंतदुक्खी तस-थावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी अहा हि से सुस्समणे समाहिए // 544 / / संस्कृत-छाया : उपेक्षमाणः कुशलैः संवसेत्, ___ अकान्तदुःखिनः स स्थावरान् दु:खिनः / अलूषयन् सर्वंसहः महामुनिः तथा हि असौ सुश्रमण: समाख्यातः // 544 // III सूत्रार्थ : परीषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि गीतार्थ मुनियों के साथ रहे सब प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है ऐसा जानकर त्रस और स्थविर जीवों को दुःखी देख कर उन्हें किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सर्व प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि-लोकवर्ति पदार्थों के
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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