________________ 244 2-1-2-3-23 (443) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसके अतिरिक्त साधु या साध्वी उच्छ्वास अथवा निश्वास लेता हुआ, खांसता हुआ, छींकता हुआ, उबासी लेता हुआ अथवा अपान वायु को छोड़ता हुआ पहले ही मुख या गुदा को हाथ से ढांककर उच्छ्वास ले या अपान वायु का परित्याग करे। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु यहां यह सारांश है कि- शयन के समय एक हाथ के अंतर पे हि संथारा करें... तथा सोने के बाद निःश्वासादि विधि पूर्वक हि करें... तथा-आस्य याने मुख, पोसयं याने अधिष्ठान-गुदा... अब सामान्य से शय्या के विषय में कहतें हैं... v सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु को शयन करते समय अपने हाथ-पैर से एक-दूसरे साधु की अशातना नहीं करनी चाहिए। अपने शरीर एवं हाथ-पैर का दूसरे के शरीर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए। क्योंकि, ऐसी प्रवृत्ति से शारीरिक कुचेष्टा एवं अविनय प्रकट होता है, और मनोवृत्ति की चञ्चलता एवं मोहनीय कर्म की उदीरणा के कारण मोहनीय कर्म का उदय भी हो सकता है। अतः साधु को शयन करते समय किसी भी साधु के शरीर को हाथ एवं पैर आदि से स्पर्श नहीं करना चाहिए। ____यदि साधु को श्वासोच्छवास, छींक आदि के आने पर जो मुंह पर हाथ रखने का कहा गया है, उसका अभिप्राय इतना ही है कि- उससे वायुकायिक जीवों की हिंसा न हो। प्रस्तुत प्रसंग में इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि यह वर्णन सामान्य रूप से चलने वाले श्वासोच्छवास के लिए नहीं, अपितु विशेष प्रकार के श्वासोच्छवास के लिए है। आगम में लिखा है कि फूंक आदि मारने से वायुकाय की हिंसा होती है, इसलिए साधु को इस तरह से यत्ना करने का आदेश दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि- भाषा के पुद्गल चार स्पर्श वाले होते हैं अतः वे आठ स्पर्श वाले वायुकाय की हिंसा कैसे कर सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि भाषा-वर्गणा के पुद्गल उत्पन्न होते समय चार स्पर्श वाले होते है, परन्तु भाषा के रूप में व्यक्त होते समय आठ स्पर्श वाले हो जाते हैं। इसी कारण शरीर से उत्पन्न होने वाली अचित्त वायुकाय को आठ स्पर्श युक्त माना गया है और वह 5 प्रकार की मानी गई है। अतः मुंह से निकलने वाली वायु से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है।