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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-2-3-23 (443) 243 अब सोने (शयन) की विधि के विषय में कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु संस्तारक को यत्ना पूर्वक बिछाने के बाद उस पर शयन करने से पहले शरीर का सिर से लेकर पैरों तक प्रमार्जन कर ले। क्योंकि, यदि शरीर पर कोई क्षुद्र जन्तु चढ़ गया हो या बैढ गया हो तो उसकी हिंसा न हो जाए और शरीर पर लगी हुई धूल से वस्त्र भी मैले न हों। संयम की साधना को शुद्ध बनाए रखने के लिए साधु को शरीर का प्रमार्जन करके ही शयन करना चाहिए। शयन किस तरह करना चाहिए, उसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी / आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 23 // // 443 / / से भिक्खू वा० बहु० सयमाणे नो अण्णमण्णस्स हत्थेण हत्थं पाएण पायं काएण कायं आसाइज्जा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहु० सइज्जा। से शिवछू र यसमा छ कीसममाणे aa क्रासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा, वायनिसग्गं वा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जा वा जाव वायनिसग्गं वा करेज्जा / / 443 // II संस्कृत-छाया : ___ स: भिक्षुः वा० बहु० शयानः न अन्योऽन्यस्य हस्तेन हस्तं पादेन पादं कायेन कायं आसादयेत्, स: अनासादयन् ततः संयतः एव बहु० शयीत। स: भिक्षुः वा उच्छ्वसन् वा नि:श्वसन् वा कासन् वा जृम्भमाण: वा वातनिसर्ग वा कुर्वाण: पूवमेव आस्यं वा अधिष्ठानं वा पाणिना परिप्रेक्ष्य तत: संयत: एव उच्छ्वसेत् वा यावत् वातनिसर्ग वा कुर्यात् // 443 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी शयन करते हुए परस्पर-एक दूसरे को अपने हाथ से दूसरे के हाथ की, पैर से दूसरे के पैर की आशातना न करे। अर्थात् इनका एक दूसरे से स्पर्श न हो। अर्थात् आशातना न करते हुए ही शयन करे।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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