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________________ 242 2-1-2-3-22 (442) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब शयन-विधि के विषय में कहतें हैं... V : सूत्रसार : - प्रस्तुत सूत्र में शयन करने की विधि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि- साधु को आसन बिछाते समय यह देखना चाहिए कि आचार्य, उपाध्याय आदि ने कहां आसन लगाया है। उन्होंने जिस स्थान पर आसन किया हो उस स्थान को छोड़कर शेष अवशिष्ट भाग में समविषम, हवादार या बिना हवा वाली जैसी भूमि हो उसका प्रतिलेखन करके वहां पर आसन करें। इसका तात्पर्य यह है कि वह आचार्य आदि की सुविधा का ध्यान अवश्य रखे। इसके लिए वह विषम एवं बिना हवादार भूमि पर आसन अवश्य करें, परन्तु, उसके लिए किसी के स्थान का परिवर्तन न करे और न परिवर्तन करने के लिए संघर्ष करे। इससे साधु समाज के पारस्परिक प्रेम-स्नेह का भाव अभिव्यक्त होता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'सिज्जा संथारगं' का अर्थ है शय्या या आसन करने का उपकरण। साधु को संस्तारक पर कैसे बैठना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्मस्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं.... I सूत्र // 22 // // 442 // से भिक्खू वा० बहु संथरित्ता अभिकं खिज्जा बहुफासुए. सिज्जासंथारए दुरुहित्तए / से भिक्खू० बहु० दुरुहमाणे पुव्वामेव ससीसोवरियं कायं पाए य पमज्जिय तओ संजयामेव बहु० दुरुहित्ता, तओ संजयामेव बहु० सइज्जा || 442 // II संस्कृत-छाया : सभिक्षुः वा० बहु संस्तीर्य अभिकाक्षेत बहु प्रासुके शय्या-संस्तारके आरोढुं, स: भिक्षुः० बहु० आरोहन् पूर्वमेव सशीर्षोपरिकं कायं पादौ च प्रमृज्य ततः संयतः एव बहु० आरुह्य, ततः संयतः एव बह शय्यीत // 442 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी प्रासुक शय्यासस्तारक पर जब बैठकर शयन करना चाहे तब पहले सिर से लेकर पैरों तक शरीर को प्रमार्जित करके फिर यतना पूर्वक उस पर शयन करे। IV टीका-अनुवाद : इस सूत्र का भावार्थ सुगम है...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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